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________________ 1506 नैषधमहाकाव्यम् / समये, अहनि दिने बाधितानि सूर्यदीप्तिध्वस्तकान्तीनि, अथ च,-भ्रान्तिकारणनाशानिरुपपत्तीनि, तारा नक्षत्ररूपाणि खपुष्पाणि गगनसंबन्धीनि कुसुमानि नितरां दर्शयन्ती, अथ च,-दृष्टान्तीकुर्वन्ती, शून्याध्वनि बौद्धादिशून्यवादिदर्शने विषये योगिनी तदर्शनरहस्यं जानती काचित्प्रवजितैवेयं निशा स्फुटमाभाति तादृशं दृष्टमपि प्रत्यक्षेण प्रतीयमानमपि स्थावरजङ्गमात्मकं सकलं जगन्मृषाऽसत्यमाह ब्रूते / बौद्धा दिदर्शने हि ज्ञानस्यैव बहिघंटाद्याकारस्वाज्ज्ञानातिरिक्तं सर्व मिथ्येति तज्ज्ञा योगि. न्यपि प्रपञ्चो मिथ्यति दर्शयति, तथेयमपि रात्रिरहन्यहश्यान्यपि पुष्पतुल्यानि नक्ष. त्राणि निजयोगाद् गगने दर्शयतीति भावः / निदर्शनं करोतीवेति प्रतीयमानोत्प्रेक्षा // जागरण-समयात्मक दिनमें ( सूर्यप्रकाशसे ) अदृष्ट ताराओंको आकशपुष्प ( ये कुछ नहीं है ऐसा ) दिखलाती हुई यह रात्रि शून्य मार्गमें स्पष्ट दिखलायी पड़ते हुए भी आकाशको ( अन्धकाराच्छन्न होनेसे ) जिस प्रकार असत्य बतलाती है; उसी प्रकार सम्यग्शान होने के समयमें बाधित (भ्रान्तिकारणनाश होनेसे उपत्ति शून्य ) नक्षत्ररूपी आकाश-पुष्पोंका दृष्टान्त देती हुई यह योगिनी (योगद्वारा सिद्धिको प्राप्त की हुई स्त्री ) ज्ञानभिन्न सब पदार्थको शुन्य कहनेवाले बौद्धोंके रहस्यको जानती हुई स्पष्ट दृश्य मान संसारको भी असत्य कहती है / [ जिस प्रकार भ्रान्तिके कारण आकाश पुष्पोंका होना प्रतिभासित होता है, परन्तु उस भ्रान्तिके नाश होनेपर वे आकाशपुष्प नहीं प्रतिभासित होते, (क्योंकि वास्तविकसे वे हैं ही नहीं ); उसी प्रकार भ्रान्ति रहनेपर ही स्थावरजङ्गमरूर यह संसार प्रतीत होता है, तत्त्वज्ञानके द्वारा उस भ्रान्तिका नाश होने पर वह संसार असत्य प्रतीत होने लगता है (क्योंकि आकाश-पुष्पके समान वह संसार भी वास्तविक में है ही नहीं ) ऐसा बौद्ध कहते हैं; उनका सिद्धान्त है कि ज्ञान ही बाहर में घटपटादिरूपसे प्रतीत होता है, ज्ञानसे मिन्न घटपटादिरूप कोई भी पदार्थ नहीं है, सब कुछ असत्य है। इसी बातको बौद्ध सिद्धान्तको माननेवाली योगिनी संसारको मिथ्या कहती हुई बतलाती है, रात्रिको भी वैसा करनेसे यहां योगिनी होनेकी उत्प्रेक्षा की गयी है ] // 23 // एणः स्मरेणाङ्कमयः सपत्राकृतो भवद्मयुगधन्वना यः / मुखे तवेन्दौ लसता स तारापुष्पालिबाणानुगतो गतोऽयम् / / 24 / / एण इति / हे भैमि ! तव मुख एवेन्दावाह्लादकत्वादिगुणयोगाच्चन्द्रे लसता प्रकाशमानेन, तथा,-भवद्भ्युगमेव धनुर्यस्य तेन स्मरेण तव मुखेन्दौ 'विमतो मृगवान् , चन्द्रत्वात् , संप्रतिपन्नवत्' इत्यनुमानप्रसिदोयोऽङ्कमयः कलङ्करूप एणो मृगः सपत्राकृतः / मुखे तचापदर्शनाजठरावस्थितपत्रस्यैव बाणस्यापरपार्श्वे निर्गमनं यथा भवति तथा व्यथितः स एव मृगस्तारापुष्पालिनक्षत्ररूपपुष्पपङ्क्तिस्तल्लक्षणो बाणस्तेनानुगतः सन् सहित एव पलाय्य गतोऽयं गगने दृश्यते किम् ! चन्द्रे मृगेण भाग्यम् , स चात्र नास्ति, सचापः कामश्च मुखे लसति, गगने मृगशिरा नक्षत्रं
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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