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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1507 मृगाख्यं बाणाकारपुष्पतुल्यतारानुगतं दृश्यते। तर्हि कामेन विद्धोऽन्तर्गतपत्रपार्श्व. बहिर्निर्गतबाणसहितो व्यथितः पलाय्य गतः, स एवायं मृगो दृश्यते किमिति प्रतीयमानोस्प्रेक्षा / 'सपत्रनिष्पत्रादतिव्यथने' इति डाच // 24 // (हे प्रिये ! ) तुम्हारे मुखरूपी चन्द्रमें शोममान तथा तुम्हारे भ्रदयरूपी धनुषवाले कामदेवसे ( जिसमें इस प्रकार बाण मारा गया है कि बाण शरीरको छेदकर शरीरके दूसरे भागमें बाहर दृष्टिगोचर हो रहा है और उस बाणका पङ्ख शरीरके भीतर ही रह गया हो, ऐसा ) व्यथित वह ( पहले ) तुम्हारे मुखचन्द्रमें स्थित ('मृगशिर' नक्षत्र नामक ) तारारूपी पुष्प-समूहरूप बाणसे अनुगत अर्थात् उक्तरूप बाणसहित शरीरवाला यह मृग (भागकर आकाशमें ) गया हुआ दिखलायी पड़ता है क्या ? / '[ तुम्हारा मुख आह्लादक आदि गुणोंसे युक्त होनेसे चन्द्ररूप है, चन्द्रमामें कलङ्क मृगको रहना चाहिये, किन्तु वह कलङ्क-मृग तुम्हारे मुखचन्द्रमें नहीं दृष्टिगोचर होता है और धनुष के सहित कामदेव तुम्हारे मुखमें शोम रहा है तथा आकाशमें बाणाकार पुष्पतुल्य तारासे युक्त 'मृग' ( 'मृगशिरा' नामक नक्षत्र ) दृष्टिगोचर हो रहा है। अत एव ज्ञात होता है कि कामदेवने तुम्हारे मुखचन्द्र में रहनेवाले कलङ्कमृगको ऐसा बाणविद्ध किया कि उसके शरीरको छेदकर बाण शरीरके दूसरे भागकी ओर निकल गया और उसका पङ्ख शरीरके भीतर ही रह गया तथा कामदेवसे उस प्रकार व्यथित वह कलङ्कमृग आकाशमें-कामदेवसे बहुत दूर देशमेंभागकर चला गया जो तारारूप पुष्प-समूहरूप बाणसे युक्त शरीरवाला वहां स्पष्ट दीख रहा है, जिसे हम मृगशिरा नक्षत्र कहते हैं, परन्तु वास्तविकमें वह मृगशिरा नक्षत्र नहीं, अपितु पहले तुम्हारे मुख चन्द्र में स्थित कामबाण व्यथित होनेसे भागकर आकाशमें गया हुआ कलङ्कमृग ही है ] // 24 // लोकाश्रयो मण्डपमादिमृष्टि ब्रह्माण्डमाभात्यनुकाष्ठमस्य | स्वकान्तिरेणूत्करवान्तिमन्ति गुणत्रणद्वारनिभानि भानि / / 25 / / लोकेति / हे भैमि ! ब्रह्माण्डमादौ सर्वस्मादपि पूर्व सृष्टिर्निर्माणं यस्य, अथ च,-चिरकालनिर्मितं पुराणम्, मण्डपमिति आभाति तदिव शोभते इत्यर्थः / यतः-लोकानां त्रयाणामपि आश्रयः ब्रह्माण्डाधारत्वाजगताम् / मण्डपोऽपि लोका. नामाश्रयः, तच्छायानिवासित्वाल्लोकानाम्, आश्रयनामस्वाच्च / अत एव-अस्य ब्रह्माण्डमण्डपस्य अनुकाष्ठं दिशि दिशि एतत्संबन्धिनीषु सर्वासु दिन; अथ च,एतत्संबन्धीनि काष्ठानि दारूणि लक्षीकृत्य तेषु भानि नक्षत्राणि स्वकान्तिरूपस्योरखातरेणूरकरस्य संबन्धिनी वान्तिरुद्गारस्तदन्ति घुणाख्यकीटनिर्मितो व्रणश्छिद्रं तस्य द्वारं मुखं तनिभानि तत्तुल्यानि घुणोत्कीर्णदारुरजोयुक्तानि दारुच्छिद्रमुखानीव दृश्यन्त इत्यर्थः / जनाश्रयनामा मण्डपोऽप्यतिजीर्णो यदा भवति तदा तदीयकाष्ठेषु घुणाः पतन्ति घुणोस्कीर्णगलबजोयुक्तानि घुणकृतच्छिन्द्रमुखानि वृत्तानि श्वेतानि च
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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