________________ 1508 नैषधमहाकाव्यम् / दृश्यन्ते, तानीव भानि भान्तीति भावः / 'मण्डपोऽस्त्री जनाश्रयः' इत्यमरः / अनुः काष्टम, वीप्सायामध्ययीभावः, पक्षान्तरे विभक्त्यर्थे // 25 // __ सबसे पहले रचा गया ( पक्षा०-अत्यन्त पुराना ), लोकों (तीनों या सातो लोकों में रहनेवाले प्राणियों, पक्षा०-गृहवासी लोगों ) का आश्रय ब्रह्माण्डरूप मण्डप (गृह-विशेष ) शोम रहा है ( अथवा-'ब्रह्माण्ड मण्डपके समान शोम रहा है)। इस (ब्रह्माण्ड, या-मण्डप) के प्रत्येक दिशाओं में अर्थात् चारो ओर ( पक्षा०-काष्ठमें) अपनी कान्ति. रूप धूलि-समूहको उगलते (गिराते ) हुए तथा 'धुन' ( काष्ठको जर्जर करनेवाला कीटविशेष ) के छिद्र के द्वार के समान ये नक्षत्र दृष्टिगोचर हो रहे हैं। [जिस प्रकार अत्यन्त पुराने घरकी लकड़ियों में घुन लगनेसे गोलाकार उसके छिद्रद्वार दिखलायी पड़ते हैं तथा उनमें से घुनी हुई लकड़ीकी चूनके समान धूलि गिरती रहती है, उसी प्रकार अतिशय प्राचीन एवं लोकाश्रय ब्रह्माण्डके प्रत्येक दिशाओं में घुनी हुई लकड़ीकी धूलि के समान अपनी कान्तिको नीचेकी ओर फैलाते हुए घुनके छिद्रद्वार के समान गोलाकार ये नक्षत्र जान पड़ते हैं ] // 25 // इदानीं सर्वदिग्व्यापितमोवर्णनं प्राच्यादिक्रमेणोपक्रमते शचीसपत्न्यां दिशि पश्य भैमि ! शक्रेभदानद्रवनिर्भरस्य | पोप्लूयते वासरसेतुनाशादुच्छङ्कलः पूर इवान्धकारः / / 26 / / शचीति / हे भैमि ! अन्धकारः शच्याः सपत्नी दिक प्राची तस्या वासररूपस्य सेतो सूर्यप्रभामर्यादाया नाशात् उच्छवलो निरर्गलः शक्रेभस्य दानद्रवो दानोदकं तस्य निर्झरःप्रवाहस्तस्य श्यामः पूर इव पोप्लयते भृशं प्रसरति, प्राच्यां व्याप्नो. तीत्यर्थः / त्वं पश्य / प्राच्यामेव चैरावतदानप्रवाहपूरसंभवः / जलपूरोऽपि बन्धापगमादप्रतिहतप्रसरः सन्नतितरां प्रसरति, 'प्लुङ् सर्पणे' इत्यस्माद् भृशार्थे यद्विवचनम् // 26 // ( अन्धकार-वर्णनके प्रसङ्गमें पूर्वदिशाके अन्धकारका पहले वर्णन करते हैं ) हे दमयन्ति ! सूर्यरूपी बांधके नष्ट होने (टूट जाने ) से ऐरावतके दान (मद ) जलरूप झरने के प्रवाहके समान निर्बाध अन्धकार फैल रहा है, यह तुम देखो। [जिस प्रकार बांधके टूटनेसे जलाशयका प्रवाह निर्बाध होकर फैलता ( बहता ) है, उसी प्रकार सूर्यप्रमाके नष्ट होनेसे ऐरावत के मदजलके झरने ( जलाशय ) के प्रवाहके समान बढ़ा हुआ अन्धकार पूर्वदिशाकी ओर फैल रहा है ] // 26 // दक्षिणदिग्व्यापि तमो वर्णयति रामालिरोमावलिदिग्विगाहि ध्वान्तायते वाहनमन्तकस्य | यद्वीक्ष्य दूरादिव बिभ्यतः स्वानश्वान्गृहीत्वापमृतो विवस्वान् // 27 // रामेति / श्रीरामस्यालिः सेतुः सेतुबन्ध एव श्यामस्वागोमावलियस्यास्तस्या