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________________ पञ्चदशः सर्गः। 121 पासमें उस ( नल ) के गलाकार तिलकरूपिणी गोली (पक्षीको मारने के लिए मिट्टीकी बनायी गयी छोटी-सी गोली ) के समान शोभती थी। [ नलके दोनों भौहोंके मध्य में लगाया गया गोलाकार तिलक ऐसा मालूम पड़ता था कि दमयन्तीके हृद्गत धैर्यातिशयरूप हंसको मारने के लिए इच्छुक कामदेवने धनुषपर गोली चढ़ायी हो // यहांपर दमयन्ती धैर्यातिशयको हंस, नलभ्रद्वयको कामधनुष तथा तिलकको गोलीको उत्प्रेक्षा की गयी है। दमयन्ती नल के तिलकको देखकर अपने मानसवासी धैर्याधिक्य को छोड़ अर्थात् अधीर होकर तत्काल कामवशीभूत हो जायेगी ] // 62 // अचुम्बि या चन्दनबिन्दुमण्डली नलीयवक्त्रेण सरोजतर्जिना। श्रियं श्रिता काचन तारका सखो कृता शशाङ्कस्य तयाऽङ्कवर्तिनी / / अचुम्बीति / सरोजतर्जिना पद्मधिकारिणा, नलस्य इदं नलीयम् / 'वा नामधेयस्य-' इति वृद्धसंज्ञायां वक्तव्यत्वात् 'वृद्धाच्छः' इति छ प्रत्ययः, वक्त्रं तेन नलमुखचन्द्रेण इत्यर्थः / सरोजतजिविशेषणसामर्थ्यात् वक्ष्यमाणतारायोगसामर्थ्याच या चन्दनबिन्दोःमण्डली बिम्ब, पूर्वोक्तवर्तुलतिलकमित्यर्थः / बिम्बोऽस्त्री मण्डलं त्रिषु' इत्यमरः / अचुम्बि चुम्बिता धृता, इत्यर्थः। तया चन्दनबिन्दुमण्डल्या, शशाङ्कस्य 'चन्द्रस्य, अङ्कवर्तिनी, समीपवर्तिनी, श्रियं श्रिता श्रीधारिणी सती, काचन तारका दिनकृतसमागमा काचिदश्विन्यादीनाम् अन्यतमा तारका, सखी कृता सहचरी कृता। चन्दनविन्दुतिलकेन तु नलमुखं दिवसे तारायुक्तचन्द्रवच्चकासामास इति भावः / उत्प्रेक्षा, सा च इवाद्यप्रयोगात् गम्या // 63 // - कमल को तर्जित ( गोलाकार या अधिक सुगन्धित होनेसे, अथवा-चन्द्ररूप होनेसे तिरस्कृत ) करनेवाले नलके मुखने जिस गोलाकार चन्दन-तिलकको लगाया, उसने चन्द्रमाके मध्य में ( या-समीपमें ) रहनेवाली शोभासम्पन्न किसी तारा ( अश्विनी आदि ताराओमेंसे किसी एक तारा) को सखी बना लिया अर्थात् उसके समान शोभित हुई / [ चन्दन-बिन्दु के तिलकसे नलका मुख दिनमें तारायुक्त चन्द्रमाके समान शोभित हुआ, अथवा-यदि कमलको तर्जित करनेवाले चन्द्रमाके बीचमें रोहिणी आदि कोई तारा हो तो वह चन्द्राकार नल-मुखके मध्यगत गोलाकार चन्दन-तिलककी समानता प्राप्त कर सकती है, किन्तु ऐसा सम्भव नहीं होनेसे नलका तिलकयुक्त मुख कमल तथा चन्द्रमा-दोनोंसे सुन्दर अधिक हुआ ] // 63 // न यावदग्निभ्रममेत्युदृढतां नलस्य भैमीति हरेर्दुराशया / स बिन्दुरिन्दुः प्रहितः किमस्य सा न वेति भाले पठितुं लिपीमिव / / नेति / सः पूर्वोक्तः, विन्दुर्वत्तुलचन्दनतिलकः, अग्निभ्रमं यावत् यावदग्निभ्रमं, वैवाहिकाग्निप्रदक्षिणीकरणपर्यन्तमित्यर्थः। 'पतित्वं सप्तमे पदे' इति स्मृतेः, वैवाहिका 1. 'काञ्चन' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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