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________________ 122 नैषधमहाकाव्यम्। ग्निसमीपे यावत् सप्तपदीगमनं न भवेत् तावत् भैमी नलस्य भार्या न भवेदिति ताहशाग्निप्रदक्षिणीकरणपर्यन्तमितिभावः / 'यावदवधारणे' इत्यव्ययीभावः / भैमी नलस्य उदूढताम् उद्वाहसंस्कृतत्वं, भार्यास्वमित्यर्थः / न एति न प्राप्नोति, इति हरेः इन्द्रस्य, दुराशया बृथाभिलाषेण हेतुना, सा भैमी, अस्य नलस्य, किं, भवेत् ? इति शेषः, न वा ? इति भाले नलस्य ललाटे, लिपी ब्रह्मकत कललाटलिखितम्, 'कृदिकारात्-' इतीकारः। पठितुं वाचयितुं, प्रहितः इन्द्रेण प्रेषितः, इन्दुः इव, आभातीति शेषः / उत्प्रेक्षा // 64 // नलके ललाटमें चन्द्ररूप वह गोलाकार चन्दनतिलक ऐसा मालूम पड़ता था कि 'जब तक दमयन्ती अग्निकी प्रदक्षिणा करके नलकी भार्या नहीं बन जाती, तब तक अर्थात् उसके पहले ही नल के ललाटमें ब्रह्माने दमयन्तीको लिखा है या नहीं इस ब्रह्मलिखित नलके ललाटरेखामें ब्रह्मलिपिको पढ़ने के लिए इन्द्रने दुरभिप्रायसे चन्द्रमाको भेजा हो / [ यद्यपि दमयन्तीका स्वयम्बर समाप्त हो गया और उसने हमलोगों को छोड़कर नलका वरण कर लिया, किन्तु 'नलके ललाट ( भाग्य ) में दमयन्तीको ब्रह्माने लिखा है या नहीं। इस बात को जबतक दमयन्ती अग्निकी प्रदक्षिणा ( सप्तपदो कर्म ) करके नलकी भार्या नहीं बन जाती, उसके पहले ही नलको भाग्य-लिपिको पढ़ने के लिए चन्द्रमाको इन्द्रने भेजा हो / उस ( इन्द्र) का दुरभिप्राय यह था कि सप्तपदो कर्म हो जाने के बाद दमयन्ती नलकी भार्या हो जायेगी, अतः उसके पहले ही चन्द्रमासे नलके भाग्यकी ब्रह्म-लिपि पढ़वाकर यदि नलके भाग्यमें दमयन्तीको ब्रह्माने नहीं लिखा होगा तो सम्भव है, अब ( स्वयम्बर समाप्त हो जानेपर ) भी प्रयत्न करनेपर हमें दमयन्ती भार्यारूपमें प्राप्त हो जाय // नलके ललाटमें गोलाकार चन्दन-तिलक पूर्णचन्द्र के समान शोभित हो रहा था [ // 64 / / कपोलपालीनितानुबिम्बयोः समागमात् कुण्डलमण्डलद्वयी / नलस्य तत्कालमवाप चित्तभूरथस्फुरञ्चक्रचतुष्कचारुताम् / / 65 / / कपोलेति / नलस्य कुण्डलमण्डलद्वयी कर्णवेष्टनभूषणयुगली, कपोलपाल्यां जनितयोः स्वच्छगण्डमण्डलसङ्क्रान्तयोः, अनुबिम्बयोः स्वप्रतिबिम्बयोः, समागमात् मेलनात् , तत्कालं तस्मिन् काले, चित्तभुवः कामस्य, रथे स्फुरतः चक्रचतुष्कस्य चारुताम् अवाप। रथस्य चतुश्चक्रत्वात् मण्डलाकारकुण्डलद्वयी स्वप्रतिबिम्बद्वयेन सह चतुष्टयत्वं प्राप्य रथचक्रचतुष्टयत्ववती इव भातीत्यर्थः / अत्र रथचक्रचारुतायाः कुण्डलेऽसम्भवात् तच्चारुतामिव चारुतामिति निदर्शनालङ्कारः // 65 // ___ नलके दोनों कुण्डलोंने ( स्वच्छ ) कपोलमण्डलमें उत्पन्न अपने प्रतिबिम्बके सम्बन्धसे उस (प्रसाधन-) समयमें कामदेवके रथके सुन्दर चार पहियोंकी शोभाको प्राप्त किया। [गोलाकर को कुण्डल तथा स्वच्छ कपोलमण्डल में पड़े हुए उनके दो प्रतिबिम्ब-इस प्रकार 1. 'जनिजानु-' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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