SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 223
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 120 अशक्तिम् उद्वहन् अशक्य इव, बभौ। परिवेषः चन्द्रं परिवेष्टय शोभते, किन्तु अत्रैकदेशवीत्याधाराधेययोः आनुरूप्याभावात् अधिकालङ्कारः 'आधाराधेययोरा. नुरूप्याभावादधिको मतः' इति लक्षणात्। वस्तुतोऽत्र मणिवीरपट्टिकापहवेन चन्द्रपरिधेर्नलमुखैकदेशवर्त्तित्वोत्प्रेक्षणात् सापह्नवोत्प्रेक्षालङ्कारः, तत्रोत्प्रेक्षा व्यञ्जका. प्रयोगादम्या // 6 // ___रत्नोंसे जड़े हुए वीरपट्टिकाके कपटसे नलके ललाटपर लगा हुआ चन्द्रमाका परिधि (घेरा ) उस समय (प्रसाधना-कालमें, या निकट भविष्यमें भावी प्रियासङ्गमकालमें ) चन्द्रमासे अधिक सौन्दर्य ( या-परिमाण) को प्राप्त उस (नल ) के मुखमें सर्वत्र व्याप्त होनेमें असमर्थ होते हुएके समान शोभता था। [चन्द्रमाके चारों ओर परिधि रहता है, किन्तु नलका मुख चन्द्रमासे अधिक सुन्दर (या-परिमाणमें विशाल ) था, अतः वह परिधि उस नलके सम्पूर्ण मुखको घेरने में असमर्थ होकर उसके एक भाग ( केवल ललाट ) को ही घेरकर शोभित होता था। जो परिणाममें छोटा रहता है, उसीके सम्पूर्ण भागको अलङ्कृत किया जा सकता है, अधिक परिमाणवालेके सम्पूर्ण भागको अलंकृत करना अशक्य होनेसे उसके किसी एक भागको ही अलंकृत किया जाता है। इसी कारण लघुपरिमाणवाले चन्द्र के चारों ओर परिधि रहता है और महापरिमाण नल-मुखके एक भाग ( ललाट मात्र ) में ही मणिजटित वीरपट्टिकाके व्याजसे वह परिधि रहा // नलका मुख चन्द्रमाकी अपेक्षा अधिक सुन्दर ( एवं परिमाण में अधिक ) है ] // 61 // बभूव भैम्याः खलु मानसौकसं जिघांसतो धैर्यभरं मनोभुवः / उपभ्रं तद्वत्त लचित्ररूपिणि धनुःसमीपे गुलिकेव सङ्गता / / 62 / / बभूवेति। भैम्याः मानसं स्वान्तं सरोविशेषश्च 'मानसं सरसि स्वान्ते' इति विश्वः / तत् ओकः स्थानं यस्य तं मनोनिष्टं हंसञ्च, 'हंसास्तु श्वेतगरुतश्चक्राङ्गा मानसौकसः' इत्यमरः, धैर्यभरं धैर्यातिशयं, धर्यधनमिति यावत जिघांसतः हन्तुमिच्छतः हन्तेः सन्नन्ताल्लटः शत्रादेशः, 'सन्योः ' इति द्विर्भावः 'अभ्यासाच' इति हस्य कुत्वम्, 'अज्झनगमां सनि' इति दीर्घः, मनोभुवः कामस्य, धनुःसमीपे गुलिका या पक्षिवेधधुटिका सा, उपभ्र भ्रूसमीपे, सामीप्यस्याव्ययीभावे नपुंसकह्रस्वत्वम्, नलस्येति शेषः, सङ्गता मिलिता, तस्य नलस्य, यत् वतलं चित्रं तिलक, तद्रपिणी इव, 'चित्रं स्यादद्भुतालेख्यतिलकेषु' इति विश्वः, बभूव खलु इत्युत्प्रेक्षा, नलः सद्यः भैमीचित्ताकर्षकं तिलकं दधार इति भावः / 'त्रिपुण्डूं सुरविप्राणां वत्तलं नृपवैश्ययोः / अर्द्धचन्द्रन्तु शूद्राणामन्येषामूर्ध्वपुण्डूकम् // ' इति स्मरणाद्वत लेत्युक्तम् // 62 // दमयन्तीके मानस ( हृदय, पक्षा०-मानसरोवर हृद) में रहने वाले ( हंसरूप) धैर्यातिशयको मारने की इच्छा करनेवाले कामदेवके धनुषके पासमें सज्जीकृत दोनों भौंहोंके १.-रूपता' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy