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________________ द्वादशः सर्गः। 736 वयस्ययाऽऽकूतविदा दमस्वसुः स्मितं वितत्याभिदधेऽथ भारती / इतः परेषामपि पश्य याचतां भवन्मुखन स्वनिवेदनत्वराम् // 56 || वयस्ययेति / अथ दमस्वसुः आकृतविदा अभिप्रायज्ञया, वयस्यया सख्या, स्मितं वितत्य हास्यं कृत्वा, भारती वाग्देवी, अभिदधे अभिहिता, किमिति ? भव. न्मुखेन वन्मुखेन, याचतां स्ववर्णनं प्रार्थयमानानाम् , इतोऽस्मात् राज्ञः, परेषाम् अन्येषामपि राज्ञां, स्वनिवेदने आत्मपरिचयकथने, त्वरां द्वतकथनत्वं कालविलम्बासहत्वं वा, पश्य, एतद्वर्णनात् विरम्य परान् वर्णयेत्यर्थः // 59 // ___ इसके बाद दमयन्ती के अभिप्राय ( यह इसे वरण करना नहीं चाहती ऐसे भाव ) को जाननेवाली सखी मुस्कुराकर सरस्वतीसे बोली-इस ( राजा ) के अतिरिक्त राजाओंकी भी तुम्हारे मुखसे अपने वर्णनकी शीघ्रताको देखो। [ इसके अतिरिक्त अन्यान्य राजा भी तुम्हारे मुखसे अपना वर्णन कराने के लिये शोवता कर रहे हैं, अत एव तुम इस राजाके वर्णनको समाप्तकर अन्य राजाओंका भी वर्णन करो ] // 59 // कृताऽत्र देवी वचनाधिकारिणी त्वमुत्तरं दासि ! ददासि का सती ? / ईतीरिणस्तन्नृपपारिपार्श्विकान् स्वभतरेव भ्रकुटिन्यवर्त्तयत् / / 60 / / कृतेति / हे दासि ! अत्र स्वयंवरे, देवी वाग्देवी वचने नृपतिवर्णने, अधिकारिणी की, कृता नियुक्ता, त्वं का सती का भवन्ती, केन प्रयुक्ता सतीत्यर्थः, असतो कुलटा, का त्वामति च गम्यते; उत्तरं ददासि ? इति ईरिणः एवं ब्रुवाणान् , तस्य नृपस्य, परिपावं वर्तन्ते इति पारिपार्श्विकान् सेवकान् , 'परिमुखञ्च' इति ठक् चकारात् पारिपार्श्विकः, स्वभत्तः स्वस्वामिन एव, भ्रकुटिः न्यवर्तयत् तेषां स्वामी एव तान् भ्रूभङ्गेण निवारितवान् इत्यर्थः // 60 // हे दासि ! यहांपर ( इस राजसभामें ) देवी ( सरस्वती देवी ) बोलने ( राजाओं का परिचय देने ) में अधिकारिणी बनायी गयी हैं, तुम कौन होकर ( अथवा-असती अर्थात् दुराचारिणी कौन होकर ) उत्तर दे रही हो?? ऐसा कहनेवाले राजा ( वर्ण्यमान 'मालय' राजा ) के पाश्र्ववर्तियोंको अपने स्वामीकी भृकुटिने ही मनाकर दिया अर्थात् उक्त वचन कहनेवाले अपने अनुचरोंको उक्त राजाने ही भृकुटिके सङ्केतसे रोक दिया // 60 // धराधिराजं निजगाद भारती तत्सम्मुखेपद्वलिताङ्गसूचितम् / दमस्वसारं प्रति सारवत्तरं कुलेन शीलेन च राजसूचितन / / 61 / / धरेति। भारती सरस्वती, कुलेन वंशमर्यादया. शीलेन सद्वृत्तेन च, राजसु मध्ये उचितं योग्यं, सर्वलोकपरिचितमित्यर्थः, सारवत्तरं श्रेष्ठम्, अतिवलिष्टं वा, तस्य वर्णनीयनृपस्य, सम्मुखं यथा तथा ईषद्वलितेन वक्रितेन, अङ्गन वपुषा, सूचितं निर्दिष्टं, धराधिराजं भूपति, प्रति लक्षीकृत्य, दमस्वसारं निजगाद तस्यै कथयामासेत्यर्थः // 6 //
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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