________________ 740 नैषधमहाकाव्यम् / सरस्वतीने कुल तथा शील ( सदाचार ) से राजाओं में योग्य ( प्रसिद्ध या श्रेष्ठ) और अत्यन्त बलवान् ( अथवा-कुल तथा शीलसे अत्यन्त बलवान् अर्थात् श्रेष्ठ और. राजाओंमें योग्य ) एवं उस ( राजा या दमयन्ती) के सम्मुख कुछ तिर्यक् किये हुए अङ्ग ( नेत्रादि या हस्तादि ) से सूचित ( दूसरे ) राजाको दमयन्तीसे बतलाया // 61 // कुतः कृतैवं नवलोकमागतं प्रति प्रतिज्ञाऽनवलोकनाय वा ? | अपीयमेनं मिथिलापुरन्दरं निपीय दृष्टिः शिथिलाऽस्तु ते वरम् / / 62 // ___ कुत इति / हे भैमि ! आगतं स्वयंवरार्थमुपस्थितं, नवलोकम् अपूर्वजनं प्रति, एवं परिदृश्यमानप्रकारेण, अनवलोकनाय वा अनवलोकितुमेव, अवधारणार्थो वाशब्दः कुतः कस्मात् कारणात् , प्रतिज्ञा कृता ? न युक्तमेतदिति भावः; भवतु तावत् एनं पुरोवर्तिनं, मिथिलापुरन्दरमपि मिथिलापतिमपि, निपीय सम्यक निरीक्ष्य, सकृदपीति भावः, ते तव, इयम् दृष्टिः शिथिला शिथिलादरा, एतस्य रूपवत्तायामिति भावः, अस्तु, वरम् इत्यपि श्रेष्ठं, वीक्ष्य उपेक्षणम् अपि अदर्शनात् किञ्चित् नियमित्यर्थः // 62 // आये हुए नवीन ( पाठा०-वर अर्थात् दुल्हा या श्रेष्ठ ) लोगोंको नहीं देखने के लिए ही इस प्रकार ( पाठा० --तुमने नहीं देखने के लिए ) क्यों प्रतिज्ञा की है ? ( ऐसा करना उचित नहीं है ) / इस मिथिलानरेशको पान ( देख ) कर तुम्हारी दृष्टि शिथिल ( आदर वाली ) होवे यह श्रेष्ठ है / (अथवा -श्रेष्ठ इस मिथिलानरेशको......"शिथिल हो)। [ यद्यपि तुमने पूर्व वर्णित राजाओंको देखा तक नहीं है, किन्तु ऐसा करना अनुचित होनेसे इस मिथिला-नरेशको एक बार देख लो फिर भले ही वरण मत करो, क्योंकि आये हुए किसीको नहीं देखनेकी अपेक्षा देखकर उपेक्षा कर देना श्रेष्ठ है ] // 62 // न पाहि पाहीति यदब्रवीरभु मदोष्ठ ! तेनैवमभूदिति ऋधा / रणक्षितावस्य विरोधिमूर्द्धभिर्विदश्य दन्तैर्निजमोष्ठमास्यते // 63 // नेति / मदोष्ठ ! हे मदीयाधर ! यत् यस्मात् , पाहि पाहि इति अमुं राजानं, न अब्रवीः, दुरभिमानादिति शेषः, तेन पाहि पाहीति अवचनेनैव, एवमीदृशी मे दशा, अभूदिति हेतोः क्रधा क्रोधेन, रणक्षितौ अस्य विरोधिमूर्द्धभिः शत्रुशिरोभिः कत्तभिः, दन्तैः करणैः निजमोष्ठमधरम् ओष्ठशब्दस्य अधरार्थकत्वमपि दृश्यते, विदश्य, आस्यते स्थीयते; अस्य राज्ञः शत्रूणामेतच्चरणमेव शरणम् , अन्यथा मरणमेवेति भावः / अत्र शत्रुशिरसां प्रत्यर्थिविषयक्रोधहेतुकस्य ओष्ठदंशनस्योष्ठविषयक्रोधहेतुकत्वोत्प्रेक्षणात् हेतूत्प्रेक्षा व्यञ्जकाप्रयोगात् गम्या // 63 // 'हे मेरे ओष्ठ ! जो तुमने 'पाहि, पाहि' अर्थात् 'रक्षा करो, रक्षा करो' ऐसा इस (मिथिला नरेश ) से नहीं कहा; इस कारण ऐसा ( हम मस्तकोंका कटकर भूमिमें लोटना) 1. 'वर' इति पा०। 'ते' इति पा०।