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________________ सप्तदशः सर्गः! 1116 बड़े घोड़ोंवाले रथसे ढोए ( लाये ) गये तुम (दमयन्तीके द्वारा) दूसरे ( नल) के वरण कर लिये जानेपर अनेक योजन अर्थात् बहुत दूर जा रहे हो इस विषयमें ( अथवा-यहां पर ) तुम्हें लज्जा नहीं होती ? अर्थात् लज्जा होनी चाहिये (वह नहीं हो रही है, अत' एव तुम अतिशय निर्लज्ज हो। अथवा-लज्जा नहीं होगी ? अर्थात् अवश्यमेव लज्जा होगी, अतएव तुम्हें नहीं जाना चाहिये। अथवा-कान्तिसे जन-समूह (अपने सहचर सैनिकों) को तथा कामदेवको भी जीतते हुए दूसरेको वरण कर लिये जानेपर जो तुम बड़े घोड़ोंवाले रथसे जा रहे हो यह तुम मूर्ख हो." ) // (कलिने वरुणसे कहा-) हे निर्लज्ज (वरुण) ! कान्ति ( शरीरशोभा ) से जनसमूहको अथवा-योजनसमूहको अर्थात् सुदूरतक रञ्जित करते हुए जो तुम बड़े घोड़ों वाले रथसे ( अथवा-श्यावकर्णादि घोड़ेसे स्वयंवर ) को जाते थे, वह तुम मूर्ख हो, ( क्योंकि ) इस स्वयंवरसे दूसरेके वरण करलिये जाने पर तुम्हें लज्जा नहीं होती? अर्थात् मैं तो उस समय स्वयंवर में नहीं था, किन्तु तुम्हारे सामने ही दूसरेका वरण हुआ, अतरव तुम्हें लज्जा आनी ही चाहिये। [अथवा-हे अत्रपामर ( लज्जाके अभाव अर्थात् निर्लज्जतासे नहीं मरनेवाले वरुग)! यदि दूसरे किसीके लिए ऐसी लज्जाका प्रसङ्ग आता तो वह मर जाता, किन्तु निर्लज्ज होने के कारण ही नहीं मरे हो, इससे वरुणका कलिने अत्यन्त उपहास किया / अथवा-हे अत्रपामर (लज्जासे हम जैसे लोगोंको) रोग देनेवाला अर्थात् दुःखित करनेवाला वरुण)! तुम्हारे इस कर्मसे हमलोग भी दुःखित हो जाते हैं, किन्तु तुम दुःखित नहीं होते, अतः आश्चर्य है, या तुम बहुत नीच हो] // 155 // नलं प्रत्यनपेतात्तिं तार्तीयोकतुरीययोः / युगयोयुगलं बुद्ध्वा दिवि देवा धियं दधुः // 156 / / नलमिति / अथ देवाः इन्द्रादयः, तार्तीयोकतुरीययोः तृतीयचतुर्थयोः, 'तीयादी. का स्वार्थे वा वाच्यः' इत्यनेन तार्तीयीकसिद्धिः। 'चतुरश्छयता वाऽऽद्यपरलोपश्च' इस्यनेन तुरीयसिद्धिः। युगयोः द्वापरकल्योः , युगलं द्वयम्, कर्म। नलं प्रति अनपेता अनपगता, अस्मद्वाक्येनापि न रीभूतेत्यर्थः / आर्तिः पीडनेच्छा यस्य तत् तादृशम्, बुद्ध्वा विविच्य, दिवि स्वर्गे, धियं मतिम् , दधुः कृतवन्तः, दिवं गन्तुम ऐषुरित्यर्थः // 156 // (इन्द्रादि चारो) देवोंने तृतीय तथा चतुर्थ युगों अर्थात् द्वापरयुग तथा कलियुगको नलको पीडित करनेके विचारको नहीं छोड़नेवाला समझकर स्वर्ग जानेका विचार किया। [हमारे बहुत समझानेपर भी ये द्वापर तथा कलि नलको पीडित करनेके विचारको नहीं छोड़ रहे हैं, और इससे अधिक हम कर ही क्या सकते हैं ? नलका जैसा होनहार होगा, वह होकर ही रहेगा, ऐसा सोचकर (इन्द्रादि चारो) देव स्वर्ग जाने की इच्छा किये ] // 156 //
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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