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________________ 1118 नैषधमहाकाव्यम् / सर्थप्रत्ययेन' इति तद्योगे षष्ठी / अपरः कः ? अन्यः कः ? स्वत्तः अधमः कश्चिन्नास्ति इत्यर्थः / समानमन्यत् // 154 / / (यमने कलिसे कहा-) जिस ( दमयन्ती ) के लिए गतवान् गमन करनेमें प्रयत्नवान् हो अर्थात् जिसके लिए जा रहे हो, उस (दमयन्ती) के द्वारा दूसरे पति (नल) को वरण किये जानेपर असमर्थ ( अथवा-क्षमाहीन ) और व्यर्थ क्रोध करनेवाले तुम्हारे क्रोध का अवरोध हो अर्थात तुम्हारा क्रोध रुके ( तुम क्रोध मत करो)। [यद्यपि नल ने तुम्हारा कोई अपकार नहीं किया है, तथापि क्षमाहीन होकर ( या असमर्थ होकर भी) व्यर्थ क्रोध करनेवाले (मको क्रोध नहीं करना चाहिये ] // (कलिने यमसे कहा-)जिस ( दमयन्ती ) के लिए तुम गये थे, उसके द्वारा दूसरे पति ( नल ) का वरण किये जानेपर असमर्थ एवं व्यर्थ क्रोधबाले तुमसे होन (नीच या तुच्छ ) दूसरा कौन है ? अर्थात् कोई नहीं। [ अथवा-तुमसे हीन कौन होवे ? ( इस पक्षमें 'रतात' क्रिया पद पृथक् समझना चाहिये ) / अथवा-."जानेपर तुमसे हीन कौन होवे ? (क्योंकि ) अक्षम ( भूमि-स्पर्श नहीं करनेवाले अर्थात देव ) तुम्हारा क्रोध ( 17.95) भ्यर्थ है ( हमारे-जैसे लोगोंका ही क्रोध करना सफल है, न कि तुमलोगोंका)। अथवातुमसे हीन कौन है ? ( अत एव ) हे अक्षम ( असहनशील यम ) ! व्यर्थमें (हमलोगों के प्रति ) क्रोधको नष्ट करो अर्थात् हमलोगों के प्रति क्रोध मत करो। इस अर्थमें 'षोऽन्तकर्मणि' धार के लोट् लकारके मध्यम पुरुषके एक वचनका 'स्य' क्रियापद पृथक् समझना चाहिये] // 154 / / यासि स्मरं जयन् कान्त्या योजनौघं महार्वता / __समूढस्त्वं वृतेऽन्यस्मिन् किं न हीस्तेऽत्र पामर ! // 155 / / यासीति / पामर ! हे नीच ! कले ! 'विवर्णः पामरो नीचः' इत्यमरः / त्वं कान्त्या सौन्दर्येण, स्मरं कर्दपम् , जयन् अधरीकुर्वन् , प्रसाधनविशेषेण स्मरादपि अधिकरूपवान् सन् इत्यर्थः / तथा महार्वता महाश्वेन, विमानेन इति शेषः / समूढः सम्यक वाहितश्च सन् ,योजनानां चतुष्कोशाध्वमानानाम् , ओघसमूहम् , बहयोजन. मित्यर्थः / 'योजनं परमात्मनि / चतुष्कोश्याञ्च योगे च' इति मेदिनी। यासि गच्छसि, किन्तु अत्र स्वयंवरे, अन्यस्मिन् वृते सति ते हीःलज्जा, न किम् ? भविष्य तीति शेषः। अन्यत्र तु-अत्रप ! हे निर्लज्ज !, अमर ! वरुण !, यः त्वं कान्त्या निजदेहसौन्द. यण, जनौघं जनसङ्घम , रञ्जयन् प्रीणयन् , महार्वता 'बृहदश्वेन , यासि स्म स्वयंवरमयासीः, स त्वं मूढः मूर्खः, असि इति शेषः / अत्र अन्यस्मिन् वृते तव हीः. न किम् ? पूर्ववदलङ्कारः // 155 // (वरुणने कलिसे कहा-)हे नीच ! ( शरीरकी) कान्तिसे कामदेवको जीतते हुए (विपरीत लक्षणासे अत्यन्त कृष्ण वर्ण होनेके कारण कामदेवको नहीं जीतते हुए) तथा
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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