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________________ / सप्तदशः सर्गः। 1117 पुरोवर्ति, भवतः तव, आस्यं मुखम् , हा ! शोचामः इत्यर्थः / 'अभितः परितः-' इत्यादिना हा-शब्दयोगे द्वितीया / 'हा विषादशुगर्तिषु' इत्यमरः। ___ अन्यत्र-हे वह्ने ! पुरा पूर्वम् , यां वरीतुम्, यासी, आयासीः, 'पुरि लुङ् चास्मे' इति भूते लट् / स्वमिति शेषः / तया अग्रे एव तव समक्षमेव, अन्यस्मिन् नले, वृते सति भवतस्तव, एतत् प्रत्यक्षदृश्यम् , वृत्तं वत्तलाकारम्, आस्य मुखम् , त्रपामाकरोतीति त्रपाकर लज्जाकरम् , जातमिति शेषः, अत एव हा! शोचामीत्यर्थः // 153 // (अग्निने कलिसे कहा-) तुम जिस ( दमयन्ती ) को वरण करने के लिए जावोगे, उससे दूसरे ( नल ) के पहले हो वरण कर लिये जानेपर लज्जाका आकर यह तुम्हारा मुख हो गया, हा ! [ इसके लिए हम दुःख प्रकट करते हैं। अथवा पाठा०-.""जाने पर तुम्हारा यह ( स्वयंवर में जाना) लज्जा करने वाला (या-लज्जाकी खान ) हास्य हो गया / अथवा-"""तुम्हारा यह वृत्त (आचरण-स्वयंवरमें जाना ) लज्जाकारक और हास्य का कारण होगा / दमयन्तीके द्वारा नलका वरण कर लिये जानेपर अब स्वयंवर में तुम्हारे जा तेसे तुम्हें लज्जित होना पड़ेगा ओर लोग तुम्हारा उपहास करेंगे, अत एव तुम वहां मत जावो ] // (कलिने अग्नि से कहा-) पहले जिस ( दमयन्ती) को वरण करनेके लिए तुम गये थे, उसके द्वारा ( तुम्हारे ) सामने ही दूसरे ( नल ) को वरण कर लिये जानेपर यह गोलाकार मुख लज्जाकारक ( अथवा-लज्जाका आकर = खान) हो गया, हाय ! [ इसका मैं शोक कर रहा हूँ। अथवा-....."जानेपर यह तुम्हारा वृत्त ( स्वर्गको पुनः प्रत्यावर्तनरूप आचरण ) त्राऽकर (अलज्जाकारक ) है ? अर्थात् कदापि नहीं, अत एव ऐसी घटना होनेपर तुम्हें लज्जा होनो से चाहिये / अथ च अपनी स्त्री (स्वाहा ) को स्वर्गमें जाकर कैसे अपना मुख दिखलावोगे ! हाय खेर है / अथवा-पहले ( स्वयंवरमें अपने पहुँच नेके पूर्व) रत्नाधिका उपहार भेजकर जिस दमयन्ती के पास गये थे,....... | अथवा तुम्हारा मुख तथा आचरण-दोनों ही लज्जाकारक हैं ] // 153 // . पत्यौ तया वृतेऽन्यस्मिन् यदर्थ गतवानसि / भवतः कोपरोधस्तादक्षमस्य वृथारुषः // 154 // पत्याविति / हे ! यदर्थ यद्वैमीनिमित्तम् गतवान् गमनवान् , गमनपरः इत्यर्थः, भावविहितगतशब्दात् मतुपप्रत्ययः / असि भवसि, यां वरीतुं गच्छसीत्यर्थः। तया भैम्या, अन्यस्मिन् पत्यौ पूर्वमेव वृते सति, अनमस्य प्रतीकाराशक्तस्य, अत एव वृथारुषः निष्फलकोपस्य, भवतः तव, कोपरोधः क्रोधस्य उपशमः, तात् अस्तु, इदानी कोपो न कार्य इत्यर्थः / अस्तेर्लोटि तातडादेशः। __ अन्यत्र तु-हे यम ! यदर्थ गतवानसि पूर्व गतोऽसि, भूते क्तवतुः। अतमत्प भवतः तव, अधस्तात् अधरः, होनः इत्यर्थः, 'दिक्छन्देभ्यः सतमी-' इत्यादिना अधरशब्दात् प्रथमार्थ अस्तातिप्रत्ययः, 'अस्ताति च' इत्यधरस्याधादेशः, षष्ठयत
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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