SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 419
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 1116 नैषधमहाकाव्यम् / अपिधानम् , आच्छादनमित्यर्थः, 'आतश्वोपसर्गे' इत्यङ्प्रत्ययः / तद्वता आच्छादन. वता, निगृहितेन इत्यर्थः / विमानेन मानरहितेन, अनेन मुखदर्शनानुमितेन, उद्वे. गेन चित्तवाञ्चल्येन, अपमानजनितमनःक्षोभेगेत्यर्थः / किम् ? अलम् , तद्गोपनं उपर्थमेवेन्यर्थः / धैर्यावलम्बनेन भैम्यलाभजन्यदुःखं संवृतमपि मया भावदर्शनादिना सम्यगनुमितमेव, सुतरां दुःखमोपनं व्यर्थमेवेति भावः / अत्र द्वयोः अर्थयोः प्रकृत. वात् केवलप्रकृतश्लेषः // 152 // (इन्द्र ने कलिसे कहा-) उस ( दमयन्ती ) के द्वारा नलको वरण कर लेने पर वहां ( स्वयंवरमें ) तुम्हारा नहीं जाना ही उचित है, ( अत एव ) तीव्रगामो ओर दौड़ते हुए इस विमान (आकाशगामो रथ ) से भो क्या लाभ है ? अर्थात् जब दमयन्तोने नलको वरण कर लिया तत्र तीव्रगामो विमानसे जाने पर भी कोई लाभ नहीं है, अत एव तुम वहां पर मत जावो / [ अथवा-उस दमयन्तीद्वारा नलको नहों वरण करनेपर तुम्हारा वहां पहुं वना उचित था। उस समय पहुंचनेपर यथाकथञ्चित् सम्भव था कि वह तुम्हें हो वरतो, किन्तु नलको वर लेनेपर अब शीघ्रगामी रथसे भी जाना व्यर्थ हो है, अर्थात् तुम अबतक कहां थे / जो समय बीतनेपर व्यर्थ हो जानेको शीघ्रता कर रहे हो। इस प्रकार इन्द्रने कलि का उपहास किया]॥ (कलिने इन्द्रसे कहा-) वहां ( स्वयंवरमें ) उस ( दमयन्ती) के द्वारा नलका वरण किये जानेपर तुम्हारा लौटना हो उचित है [ अथवा-(स्वर्गको ) नहीं जाना ही उचित है ( क्योंकि इन्द्राणी का त्यागकर दमयन्तीके साथ विवाह करने के लिए पृथ्वी लोकपर जाकर उसके वरण नहीं करनेपर कौन-सा मुख इन्द्राणीको दिखलावोगे ? ) तथा छिपाये जाते हुए ( अथवा-नहीं छिपाये जाते हुर अर्थात स्पष्टतया परिलक्षित होते हुर) मानहोन इस तीव्र व्याकुलताते क्या ( लाभ ) है ? (धैर्यावलम्बनादिके द्वारा दमयन्तीको नहीं पाने का दुःख मुझसे छिपाना व्यर्थ है, क्योंकि तुम्हारे छिपानेपर भो दुःखको मैंने मालूम कर लिया है ) / अथवा-हे विमानेन (विमान x इन = अपमानितों के स्वामी अर्थात अतिशय अपमानित इन्द्र)।] // 152 // पुरा यासि वरीतुं यामग्र एव तया वृते / अन्यस्मिन् भवतो हाऽऽस्यं वृत्तमेतत्त्रपाकरम् // 153 / / पुरेति / हे कले ! यां भैमीम् , वरोतुं पत्नीस्वेन स्वीकतम् , पुरा आगामिनि, शीघ्रमेवेत्यर्थः / यासि यास्यसि, 'यावरपुरा-' इति भविष्यति लट् / 'निकटागामिके पुरा' इत्यमरः / तया भैम्या, अग्रे एव तवागमनात् प्राक् एव, अन्यस्मिन् पुरुषान्तरे, वृते स्वीकृते सति, पायाः लज्जायाः, आकरम् आकरायितमित्यर्थः। वृत्तंजातम् एतत् 1. 'हास्यम्' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy