________________ सप्तदशः सर्गः। 1047 एकस्य विश्वपापेन सापेऽनन्ते निमज्जतः। कः श्रौतस्यात्मनो मीरा ! मरः स्याद्दुरितेन ते ? // 55 // एकस्येति / विश्वेषां यावता संसारिणां, पापेन परदारगमनादिरूपविविधपातकेन, अनन्तेऽक्षये, तापे नरकादिदुःखे, निमजतः अवगाहमानस्य, यावलोककृतपा. पजन्यानन्तदुःखमनुभवतः इत्यर्थः। श्रौतस्य 'एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म', 'नेह नानाऽस्ति किञ्चन' इत्यादि श्रुतिसिद्धस्य, एकस्य परमार्थतोऽद्वितीयस्य, हेतुगर्भविशेषणमेतत् / तथा हि-यतः सर्वदेहेषु आस्मा एक एव, अतः यावदेहावच्छेदे कृतानां यावत्पा. पानां फलभोक्ता स एवेति भावः। ते तव, स्वदुक्तस्य इत्यर्थः / मास्मनः परमात्मसं. ज्ञकस्य, भीरो! हे पापभयशील! दुरितेन पापेन, परदारगमनरूपैकमात्रपातकेन इति भावः / को भरः भारः स्यात् ? भवेत् ? देहातिरिक्तैकारमवादिमते नानादेहो. पाधिकृतनानापापसम्बन्धवत् आत्मनः एकेन पापेन न कोऽपि भारः स्यात् अतः यथेच्छं पापं कुरु इति निष्कर्षः // 55 // सबलोगोंके ( परस्त्रीसम्मोगादिरूप) पापसे ( नरक आदि ) अनन्त सन्तापमें डूबते हुए तुम्हारे ( एकात्मवादियोंके ) अभिमत वेदप्रमाणित आत्माको हे मीरो ( पाप कर्मसे नरक प्राप्तिरूप सन्तापसे डरनेवाले) ! कौन-सा भार ( बोझ) होगा ? [ 'एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म', 'नेह नानास्ति किञ्चन' इत्यादि वेदवाक्य आस्माके एकत्वका प्रतिपादन करते हैं, इस अवस्थामें सब लोग जो कुछ पाप करते हैं, उस पापसे वह एक आत्मा ही समस्त पापको भोगनेवाला सिद्ध होता है और जब ऐसी स्थिति है, तब यदि तुम परस्त्रीसम्मोगादिरूप पाप करोगे तो अनन्त लोगों के पापको भोगनेवाले उस आत्माके लिए कौन-सा अधिक बढ़ जायेगा क्योंकि बोझसे लदी हुई गाड़ीपर सूप रखनेसे उसका बोझ बढ़ना कोई भी व्यक्ति नहीं स्वीकार करता / अथवा-जब आत्मा एक ही है, तब दूसरे लोगोंके किये पुण्य के कारण सुखानुभव करनेवाले उसके लिए किसी एकके पाप कर्मसे कौन-सा बोझ हो जायेगा ? अर्थात् कुछ नहीं / अथवा-जब आत्मा एक ही है, तब कोई भी वस्तु संसारमें दूसरी या दूसरेकी नहीं है, इस अवस्थामें कोई भी परस्त्री नहीं, अतः स्वेच्छाचारसे समस्त स्त्रियों के साथ सम्भोग करनेपर भी कोई पाप नहीं होगा, अतः तुम्हें उस पापजन्य सन्तापसे डरना नहीं चाहिये ] // 55 // किन्ते वृन्तहृतात् पुष्पात् तन्मात्रे हि फलत्यदः। न्यस्य तन्मूय॑नन्यस्य न्यास्यमेवाश्मनो यदि / / 56 / / किमिति / हे याजक ! वृन्तहृतात् बन्धनावचितात, पुष्पात् चम्पकादिकुसु. मात् , पुष्पं वृन्तच्युतं कृत्वा इत्यर्थः / ल्यबलोथे पञ्चमी। ते स्वया, किं कुरिसतं कर्म कृतमित्यर्थः। 'किं कुत्सायां वितके च निषेधप्रश्नयोरपि' इति मेदिनी। हि यतः, 1. 'तापेनान्ते' इति पाठान्तरम् / 2. 'न्यस्य ते मूय॑नन्यस्य' इति पाठान्तरम् /