________________ नैषधमहाकाव्यम। अदः इदं पुष्पं, मन्मात्रे तस्मिन् वृन्ते एव, फलति फलरूपेण परिणमति, न स्वन्यत्र / पुष्पं वृन्तच्युतं कृत्वा फलव्याघातसम्पादनाद्दोष एव कृतस्त्वयेति भावः / अथ अश्मनः देवताधिष्ठितस्य शालग्रामादिप्रस्तरस्य, मूनि शिरसि, न्यास्यम् अर्पणीयम् एव, यदि 'ऋहलोय॑न्' देवतापूजादिप्रयोजनमेव तत्कारणं चेदित्यर्थः। तत् तर्हि, अनन्यस्य तादृशप्रस्तरादभिन्नस्य स्वस्य एव, मूनि न्यस्य निधेहि अस्यतेर्लोटि सिचि हेर्लुक्। 'सर्व विष्णुमयं जगत्' इत्यादिवादिभवन्मते भेदस्य काल्पनिकतया सर्वत्रैव ईश्वरस्य वर्तमानतया च विष्णुशिलातः स्वच्छिरसः अभिन्नत्वात् अन्योपास. नापेक्षया वरं स्वयमुपभोग इति भावः // 56 // - वृन्त ( भेंटी ) से तोड़े गये फूलसे तुम्हें क्या प्रयोजन ( या-तुमने क्या साधा ) ? क्योंकि वह फूल वृन्तमें रहनेपर ही फलता है ( अन्यथा नहीं; अत एव वृन्तसे तोड़कर उसे फलनेसे वञ्चित करने के कारण तुमने लाभ उठाने के बदले हानि एवं पाप ही किया ), यदि इस (फूल) को दूसरे (शिवमूर्ति या शालग्रामादि ) शिला मस्तकपर रखना ही है तो उसे अपने ही मस्तकपर रखो। [ फूलको तोड़कर देवतापर चढ़ानेसे कुछ लाभ नहीं, क्योंकि वह फूल जब डण्ठलसे तोड़ लिया जाता है तो फलता नहीं, इस प्रकार एक फलकी उत्पत्तिको रोककर तुमने लाभके स्थानमें हानि ही प्राप्त की है। 'देवताके ऊपर फूल चढ़ानेसे अभीष्टलाभ होता है' इत्यादि भावनासे यदि तुम्हें उस फूलको तोड़कर किसी 'शिवलिङ्ग या शालग्रामकी शिलापर रखना ही है तो 'सर्व विष्णुमयं जगत्' इत्यादि सिद्धान्तके अनुसार उक्त देव तथा तुम्हारे शिरमें भेद नहीं होनेसे दूसरे पत्थरके ऊपर उस फूलको नहीं रखकर अपने ही शिरपर रखो, क्योंकि दूसरेकी सेवाकी अपेक्षा स्वयमेव उपभोग करना श्रेष्ठ है। अत एव देवपूजन आदि करना सब व्यर्थ होने से अपने मस्तकपर ही फूलको क्यों नहीं चढ़ाते ? इस प्रकार देव-पूजकोंका उपहास किया गया है ] / / 56 / / / तृणानीव घृणावादान् विधूनय बधूरनु / ___तवापि तादृशस्यैव का चिरं जनवञ्चना ? // 57 / / तृगानीति / वधुः कामिनीः, अनु लक्षीकृत्य, स्त्रीविषये इत्यर्थः। घृगावादान् 'हासोऽस्थिसन्दर्शनमक्षियुग्ममत्युज्ज्वलं तत् कलुषं वसायाः / स्तनौ च पीनौ पिशितौ च पिण्डी स्थानान्तरे किं नरकोऽपि योषित् // ' इत्यादिजुगुप्सावाक्यानि, 'घृणा जुगुप्साकृपयोः' इति यादवः। तृणानि इव असारतया यवसानीव विधूनय विसर्जय / 'धूञप्रीजोर्नुग्वक्तव्यः' / तव अपि भवतोऽपि, तादृशस्य नारीवत् असारतया जुगुप्सितस्य एव सतः, चिरम् अत्यन्तं, जनवञ्चना स्त्रीविषये विरक्तिसूचकप्रलापैः, लोकप्रतारणा, का ? किमर्था ? स्त्रीणां यादृशा निन्दावादाः तादृशास्तवापि, अतः स्त्रीनिन्दया लोकवञ्चना न युक्तेति भावः // 57 // / स्त्रियोंको लक्ष्यकर (स्त्रियोंका मुख थूकका घर, स्तन मांसग्रन्थि, हास अस्थि-दर्शन है