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________________ सप्तदशः सर्गः। 6059 इत्यादि रूपमें कथित ) निन्दावचनोंको तृणके समान (निःसार जानकर) छोड़ो, क्योंकि उसी प्रकार के ( निन्दनीय.) तुम्हारे लिये (स्त्रियां इस प्रकार निन्दनीय हैं इत्यादि ) चिरकाल तक मनुष्योंको वञ्चित करना कैसा है ? / [ स्त्रियोंके विषयमें बहुत प्रकारसे घृणित रूपमें उनका वर्णन कर उनका त्याग करना बतलाया गया है, किन्तु पुरुष भी वैसा ही-मुख थूकका घर, हास अस्थिदर्शनमात्र ही है, अत एव स्त्रियोंके विषयमें निःसार घृणित वचनोंको कहना अनुचित होनेसे उसका त्याग करना और उनका उपभोग कर आनन्दलाभ करना चाहिये ] // 57 // ___ कुरुध्वं कामदेवाज्ञा ब्रह्माद्यैरप्यलचिताम् / वेदोऽपि देवकोयाज्ञा तत्राज्ञाः ! कोऽधिकाऽहणा ? / / 58 / / . कुरुध्वमिति / अज्ञाः ! हे. मूढाः! ब्रह्माथैः विधातृप्रभृतिभिरपि, अलचिताम् अनतिकान्तां, कामदेवस्य कामः कन्दर्प एव, देवः देवता, तस्य आज्ञां नारीवशीभूतत्वरूपमादेशं, कुरुध्वं पालयत / न चायमवैदिकाचार इत्याह-वेदः अपि अतिरपि, देवस्य इयं देवकीया देवतासम्बन्धिनी, 'गहादिभ्यश्च' इति छप्रत्यये 'देवस्य च' इति कुगवक्तव्यः आज्ञा शासनं, 'श्रुतिः स्मृतिममैवाज्ञा' इति भगवद्वचनादिति भावः / तत्र देवाज्ञारूपे वेदे, अधिका कामदेवाज्ञातो बलवतीत्यर्थः / अर्हणा पूजा, समादर इत्यर्थः / का? किनिमित्ता ? इस्थम् आज्ञाद्वयस्याविशेषे कामदेवाज्ञा एव कार्या ब्रह्माद्यैरप्यङ्गीकृतत्वेन शिष्टपरिगृहीतत्वरूपप्रामाण्यात् प्रत्यक्षसुखहेतुत्वाच्चेति भावः // 58 // - "हे मूल् ! ब्रह्मा आदिसे भी अनुल्लखित कामरूप देवकी (स्त्रीपरवशतारूप ) आशाको करो, क्योंकि वेद भी देवकी ही आज्ञा है (इस प्रकार दोनोंके देवाज्ञा होनेके कारण ) उस ( वेदाज्ञा ) में अधिक मान्यता क्यों है अर्थात् दोनों आज्ञाओं के देवप्रतिपादित होनेसे किसी एकमे मान्यता तथा दूसरेमें अमान्यता रखनेका पक्षपात नहीं करना चाहिये / [ अथवा-उन ( वेदाज्ञा तथा देवाज्ञा ) में-से अधिक मान्यता किसमें है ?. 'यह कहो' अर्थात् किसी में नहीं, देवाज्ञा होने के कारण दोनों ही समान रूपसे मान्य हैं। अथवा-वेद तो ब्रह्मप्रतिपादित है तथा ब्रह्मादि भी कामदेवकी आज्ञाका उल्लङ्घन नहीं करते, इस कारण ब्रह्मप्रतिपादित वेदाज्ञा तथा कामप्रतिपादित आशामें-से कामप्रतिपादित आशा ही ब्रह्मादि शिष्टसम्मत तथा प्रत्यक्षसुखप्रद होनेसे अधिक मान्य है अतः उसीका पालन करना चाहिये। पाठा०-उस ( कामाशा ) में कौनसी निन्दा है ? अर्थात् कुछ नहीं / चूंकि तुमलोग वेदाज्ञामें ही अधिक श्रद्धा रखते हो, तदपेक्षया श्रेष्ठ कामाशामें नहीं, अत एव तुमलोग 'मूर्ख' हो, इस प्रकार उपहास किया गया है / ] // 58 // 1. 'वेदो हि' इति पाठान्तरम्। 2. 'का विगर्हणा' इति पाठान्तरम् / 3. 'कुगागमः' इत्युचितम् / /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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