________________ 1060 नैषधमहाकाव्यम् / प्रलापमपि वेदस्य भार्ग मन्यध्वमेव चेत् / केनाभाग्येन दुःखान्न विधीनपि तथेच्छथ ? // 59 // प्रलापमिति / हे मूढाः ! वेदस्य भागम् अंशविशेषम् , अर्थवादात्मकमिति भावः / प्रलापम् अनर्थकं वचः, अपि प्रश्ने, मन्यध्वं जानीथ एव, चेत् यदि, तदा केन कीदृशेन, अभाग्येन भाग्यविपर्ययेण, दुःखयन्तीति दुःखाः / पचाद्यच् / तान् दुःखान् दुःखकरार्थान् , विधीन् अपि विधिभागम् अपि, तथा तद्वत् प्रलापान् इत्यर्थः / न इच्छथ ? न मन्यध्वम् ? एकदेशोपहतानराशिवत् कृत्स्नस्यापि अनुपादे. यत्वादिति भावः // 59 // वेदके ( अर्थवादात्मक ) मागको यदि प्रलाप ( कार्यप्रतिपादक नहीं होनेसे निरर्थक ) मानते हो तो किस अमाग्यसे दुःखकारक दूसरे विधि ( अग्निष्टोमादि यशविधान-प्रतिपादक भाग ) को वैसा (प्रलाप अर्थात् अर्थवादात्मक होनेसे निरर्थक ) नहीं मानते हो। [ 'आम्नायस्य क्रियार्थत्वाशनर्थक्यमेतदर्थानाम्' अर्थात् 'वेदके क्रियार्थक (क्रियाप्रतिपादक) होनेसे तद्भिन्न वचन अनर्थक है' इस पूर्वपक्षीय वचनानुसार 'सोऽरोदीत', 'यदरोदीत्' इत्यादि वचन अनर्थक हैं ऐसा पूर्वपक्ष होनेपर 'विधिना त्वेकवाक्यत्वात्' अर्थात् विधिके साथ एकवाक्यता होनेसे वे वचन स्तुत्यर्थक होनेसे अर्थवाद मानते हैं, फिर भी उनको जिस प्रकार कार्यप्रतिपादक नहीं होनेसे निरर्थक मानते हो, उसी प्रकार 'अग्निष्टोमेन स्वर्गकामो यजेत' अर्थात् 'स्वर्ग चाहनेवाला अग्निष्टोम यज्ञ करे' इत्यादि विधिवाक्योंको भी निरर्थक मानना चाहिये, क्योंकि वेदके किसी भागको सार्थक तथा तदितर भागको निरर्थक मानना अनुचित एवं अभाग्यका सूचक है, अत एव सभी वेदवचनको तुमलोग निरर्थक मानकर स्वेच्छापूर्वक कार्य करो] // 59 // श्रति श्रद्दध्वं विक्षिप्ताः प्रक्षिप्तां ब्रूथ च स्वयम् / मीमांसामांसलप्रज्ञास्तां यूपद्विपदापिनीम् / / 60 / / श्रुतिमिति / हे मीमांसया जैमिनिप्रोक्ततत्वनिर्णायकग्रन्थभेदाध्ययनेन, मांसल. प्रज्ञाः! परिपुष्टबुद्धयः ! स्थूलबुद्धयः ! इति परिहासोक्तिः / विक्षिप्ताः वादिनिराकृताः भ्रान्ताः सन्तः, श्रुतिं वेदं, श्रद्दध्वं विश्वसिथ, अथ च यूपद्विपदापिनी यूपसम्बन्धिहस्तिदानप्रतिपादिका, 'यूपे यूपे हस्तिनो बद्ध्वा विग्भ्यो दद्याद' इत्यादिवादिनीमित्यर्थः / तां श्रति, स्वयम् आत्मनैव, वेदप्रामाण्यं स्वीकुर्वाणः स्वयमेव इत्यर्थः। प्रक्षिप्तां विप्लुतार्थां, केनचित् लुब्धेन वेदान्तनिवेशितां न तु ईश्वरप्रणीतामित्यर्थः / अथ च वदथ च, तत् कुतो वेदस्य प्रामाण्यमिति भावः // 6 // हे मीमांसासे परिपुष्ट ( पक्षा०-स्थूल ) बुद्धिवाले ! विक्षिप्त ( प्रतिपक्षियोंसे पराजित होकर भ्रान्तचित्त, तुम लोग ) वेदमें श्रद्धा करते अर्थात् वेदवचनोंको प्रमाण मानते हो तथा 1. 'मन्यध्व एव' इति पाठान्तरम्। 2. 'श्रहस्थ' इति पाठान्तरम् /