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________________ अष्टादशः सर्गः। 1215 बाहुमूलमनया तदुज्ज्वलं वीक्ष्य सौख्यजलधौ ममज्ज सः॥ 119 // वान्तेति / सः नलः, वान्तम् उद्गीर्णम् , परित्यक्तमित्यर्थः / प्रचलरमणवेगन सञ्चालनेनेति भावः / 'वान्त' इत्यत्र 'वीत' इति पाठान्तरं साधु / माक्यं कुसुमस्रक येन तादृशस्य कचहस्तस्य केशपाशस्य, संयमे बन्धने, न्यस्तं निवेशितम्, हस्तयुगं करद्वयं यया तादृशया, अनया भैम्या, स्फुटीकृतं हस्तोत्तोलनेष व्यक्ती. कृतम् , उज्वलं सुन्दरम् , तत् अतिमनोहरम् , बाहुमूलं कश्देशम् वीक्ष्य दृष्ट्वा, सौख्यजलधौ आनन्दसागरे, ममज्ज निमग्नीभूतः। बाहुमूलदर्शनस्य प्रदीपकरवादिति भावः // 19 // (सवेग रति करनेसे ) गिरे हुए मालाके पुष्पोंवाले केश-समूहको दोनों हाथोंसे बांधती हुई इस ( दमयन्ती ) के द्वारा ( उन हाथोंको ऊपर उठानेसे ) प्रदर्शित भेष्ठतम बाहुमूल ( काँख ) को देखकर वे (नल) सुख-समुद्रमें डूब गये। [ रतिकाठमें केशसे मालाके फूलों के गिरने तथा केशोंके खुल जानेपर उन केशोंको बांधते समय हाथोंको ऊपर उठानेसे उसके बाहुमूलको देखकर नलको अतिशय सुख हुआ ] // 119 / / वीक्ष्य पत्युरधरं कृशोदरी बन्धुजीवमिव भृङ्गसङ्गतम् / मञ्जुलं नयनकज्जलैर्निजैः संवरीतुमशकत् स्मितं न सा / / 120 // वीच्येति / कृशोदरी क्षीणमध्या, सा दमयन्ती, मञ्जलं मनोहरम् , पत्युः मलस्य, अधरं दशनच्छदम् , निजः स्वकैः, नयनकज्जलैः नेत्राञ्जनैः, नेत्रचुम्बनसक्रान्तैरिति भावः / भृङ्गसङ्गतम् अलिचुम्बितम् , बन्धुजीवं बन्धकपुष्पम् इव स्थितम् वीच्य दृष्टा, स्मितं मन्दहासम् , संवरीतुं निरोद्धुम् , न अशकत् न शक्काऽभूत्, हासः प्रसक्तः एवेति भावः // 120 // ___ कृशोदरी ( पतली कटिवाली ) वह (दमयन्ती) अपनी आँखोंके कज्जलसे मनोहर ( अत एव ) भ्रमरयुक्त बन्धूकपुष्प (दुपहरियाका फूल ) के समान, पतिके अधरको देखकर मुस्कानको नहीं रोक सकी। [रतिकालमें नलने दमयन्तीके नेत्रका चुम्बन किया था, अतः उसका काजल उनके अधरमें लगकर ऐसा मालूम पड़ता था कि दुपहरियाके फूलपर भ्रमर बैठा हो, उसे देख दमयन्ती अपने मुस्कानको नहीं रोक सकी, किन्तु मुख फेरकर बोड़ा मुस्कुरा ही दिया ] // 120 // तां विलोक्य विमुखश्रितस्मितां पृच्छतो हसितहेतुमीशितुः / ह्रीमती व्यतरदुत्तरं वधूः पाणिपङ्करुहि दर्पणार्पणाम् / / 121 // तामिति / तां दमयन्तीम् , विमुखं पराङ्मुखं यथा तथा, श्रितस्मितां कृतमन्द. हासाम् , विलोक्य दृष्ट्वा, हसितहेतुं स्मितकारणम् , पृच्छतः जिज्ञासयत्तः, ईभितुः पत्युः नलस्य, पाणिपकहि करपद्मे, हीमती लज्जावती, बधूः नवोढा भैमी, दर्पणा. पंणां मुकुरप्रदानरूपमेव, उत्तरं व्यतरत् अदात् / अधेर कजलरेखादर्शनार्थमिति भावः॥ 12 //
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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