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________________ पञ्चदशः सर्गः। 891 ( अभीष्ट जामाताके लाभसे ) प्रसन्न होते हुए विदर्भनरेश (राजा भीम ) भी पुत्री ( दमयन्ती ) के साथ रनिवासमें प्रवेशकर ( 'मेरी पुत्री दमयन्ती गुणी नलको वरेगी या अन्य किसी गुणहीन राजाको' इस प्रकार ) संशय करती हुई पटरानीसे 'हे उत्सुके (जामाताके विषय में जाननेके लिए उत्कण्ठित प्रिये )! नलको जामाता जानो अर्थात् दमयन्तीने गुणी नलका ही वरण किया दूसरेको नहीं' यह जानो ऐसा कहा // 5 // तनुत्विषा यस्य तृणं स मन्मथः कुलश्रिया यः पविताऽस्मदन्वयम् / जगत्त्रयीनायकमेल के वरं सुता परं वेद विवेक्तमीहशम // 6 // तन्विति / किञ्च, यस्य नलस्य, तनुत्विषा कायकान्त्या, सः प्रसिद्धः, मन्मथः तृणं तृणतुल्यः, अतिनिकृष्ट इत्यर्थः। यः कुलश्रिया अभिजनसपम्दा, कौलीन्येन इत्यर्थः, अस्मदन्वयं अस्माकं कुलं, पविता पवित्रीकर्ता, पुनातेस्तृन् , 'न लोका-' इत्यादिना षष्ठीप्रतिषेधात् कर्मणि द्वितीया / किञ्च, जगत्रय्यां ये नायकाः तेषां मेले एव मेलके सङ्घ, वरसमूहानां मध्ये इत्यर्थः / मेलात् घमन्तात् स्वार्थे कः। ईदृशम् . इग्गुणोपेतं, वरं विवेक्तुं निर्वाचयितुं, परं केवलं, सुता त्वत्सुतैव, वेद वेत्ति, 'विदो लटो वा' इति लट-स्थाने णलादेशः / अहो भाग्यात् सर्वानुकूलत्वमिति भावः // 6 // _ जिसकी शरीर शोभासे वह ( अतिप्रसिद्ध ) कामदेव तृण अर्थात् तृणवत् तुच्छ है तथा जिसकी वंशकी विशुद्धि हमारे वंशको भी पवित्र करेगी; तीनों लोकोंके राजाओं के समूहमें ऐसे श्रेष्ठ वरको छांटना ( निर्णय करना ) पुत्री ( दमयन्ती ) जानती है (अथवा-केवल पुत्री ही जानती है ) / [ तीनों लोकके राजा स्वयंवरमें आये थे, उनमें से इतने उत्कृष्टगुणोंसे युक्त नल-जैसे वरको चुनना गुणज्ञा पुत्री दमयन्तीने ही किया है यह कार्य दूसरी किसी कन्यासे नहीं हो सकता था ] // 6 // सृजन्तु पाणिग्रहमङ्गलोचिता मृगीदृशः स्त्रीसमयस्पृशः क्रियाः / श्रुतिस्मृतीनान्तु वयं विदध्महे विधीनिति स्माह च निर्ययौ च सः।।।। सृजन्त्विति / स भीमः, मृगीदृशः पुरन्ध्रयः, पाणिग्रहमङ्गलोचिताः विवाहमङ्गल. योग्याः, खोसमयं स्याचारं स्पृशन्तीति तत्स्पृशःस्त्रीसमाचारप्राप्ता इत्यर्थः / 'स्पृशोऽनुदके किन्' / क्रिया मङ्गलकर्माणि, सनन्तु विदधतु / वयन्तु श्रुतिस्मृतीनां सम्ब धिनः तद्विहितान् , विधीन् कर्माणि, विदध्महे कुर्महे, इत्याह स्म च उवाच च, 'लट स्मे' इति भूते लट् / निर्ययौ च अन्तःपुरात् निर्जगाम च / चकारद्वयं क्रिययोः योगपद्यसूचनार्थकम् , उक्त्वैव निर्ययो, न तु क्षणमपि विलम्बमकरोदिति भावः॥७॥ 'विवाह-मङ्गलके योग्य (सधवा ) मृगलोचनी स्त्रियां स्त्रियोंके आचारसम्बन्धिनी क्रियाको करे ( अथवा-हे मृगलोचनी स्त्रियां ? आपलोग विवाह-मङ्गलके योग्य स्त्रियोंके आचार-सम्बन्धिनी क्रियाओंको करे। अथवा-मृगलोचनी स्त्रियां विवाह..." ) / और हमलोग वेद तथा धर्मशास्त्रों में प्रतिपादित विधियों को करते है। ऐसा कहे ओर चले भी गये / 56 नै० उ०
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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