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________________ 860 नैषधमहाकाव्यम् / अदोषतामिति / द्विषां शत्रुभिः, अधिरोपणेति कृद्योगे कर्तरि षष्ठी। मृषादोषकणाधिरोपणाः अलीकदोषलवारोपाः सतां सज्जनानाम् , अदोषतां निर्दोषताम् एव, विवृण्वते प्रकाशयन्ति, शूरे कलङ्कारोपणवत् इति भावः / तत्र हेतुमाह, नेति / सत्ये दूषणे दोषे, सति वर्तमाने, अलीकम् असत्यम् , अवयं दूषणम् / 'अवधपण्य-' इत्यादिना निपातः। आधातुम् आरोपयितुं, जातु कदाचिदपि, उद्यमः द्विषाम् उद्योगः, न भवेत् , शशाङ्के कलङ्कारोपणवदिति भावः, तथा च सत्यदोषस्य वर्तमानत्वे मिथ्यादोषारोपे शत्रणामुद्यमादर्शनात् सत्यदोषाभावेसत्येव मिथ्यादोषारोपे उद्यमोऽवगम्यते, इत्थञ्च नले मिथ्यादोषारोपदर्शनात् सत्यदोषाभावः प्रतीयते इति भावः // 4 // शत्रुओं के द्वारा किया गया झूठे थोड़े-से दोषका भी आरोप सज्जनोंके दोषाभाव (निर्दोष ) को ही प्रकाशित करता है ( जैसे-शूरवीर में शत्रु के मारनेपर निर्दय होनेका झूठा दोष लगाना ), क्योंकि-वास्तविक दोषके विद्यमान रहनेपर अवास्तविक दोषको प्रकाशित करनेके लिए शत्रुलोग कभी प्रयत्न नहीं करते ( जैसे-चन्द्रमामें वर्तमान कलङ्क दोषको कहता)। [किन्तु वास्तविक दोषके नहीं रहनेपर ही अवास्तविक दोषको प्रकाशित (झूठा आरोपित ) करने में शत्रुलोगोंका प्रयत्न देखा जाता है, अतः नलमें उक्त (1513) दोष नहीं रहनेपर भी विपक्षियों के बन्दियों द्वारा किया गया दोषप्रकाशन नल का दोषाभाव ही प्रकट करता है / अथवा-सत्य परब्रह्मस्वरूप भगवान् रामचन्द्रमें 'दूषण' नामक राक्षस द्वारा किया गया अप्रिय उद्योग जिस प्रकार अकिञ्चित्कर हुआ, उसी प्रकार विपक्ष बन्दियों द्वारा किया गया नल (या नल और दमयन्ती–दोनों ) के विषयमें असत्याक्षेपरूप अप्रिय वचन अकिञ्चित्कर ही हुआ। अथवा-अग्निपरीक्षादिके द्वारा सुपरीक्षित सीताके सम्बन्धको लेकर भगवान् रामचन्द्रके विषयमें किये गये असत्य दोष कथनने जिस प्रकार प्रजारजनादि गुणको प्रकाशित किया उसी प्रकार दमयन्तीके सम्बन्धको लेकर नलके विषयमें किया गया उक्त ( 15 / 3) असत्य दोषारोप नलके गुण-प्रकाशनके लिए ही हुआ] // 4 // विदर्भराजोऽपि समं तनूजया प्रविश्य हृष्यन्नवरोधमात्मनः / शशंस देवीमनु जातसंशयां प्रतीच्छ जामातरमुत्सुके ! नलम् // 5 // विदर्भेति / अथ विदर्भराजो भीमोऽपि, हृष्यन् सर्वोत्कृष्टजामातृलाभेनानन्दितः सन् , तनूजया दुहित्रा भैम्या, समम् आत्मनः अवरोधम् अन्तःपुरं, प्रविश्य जात. संशयां, दमयन्ती सर्वगुणाकरं नलं वरिष्यति निर्गुणमन्यं वेति इष्टवरलाभे सन्दि: हानां, देवीं निजमहिषीम् , अनु लक्ष्यीकृत्य, उत्सुके ! इष्टवरोद्युक्ते ! 'इष्टार्थोद्युक्त उत्सुकः' इत्यमरः। नलं जामातरं दुहितुः पति, प्रतीच्छ विजानीहीत्यर्थः, इति शशंस कथयामास / सिद्धं नः समीहितमिति भावः // 5 //
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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