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________________ चतुर्दशः सर्गः। 889 अपेति / सदसि सभायां, प्रियाऽन्वयात् प्रियासमागमात् , अस्य नलस्य, त्रपा अनुचिताचरणजनितलज्जा, न स्यात् ? न भवेत् ? इति काकुः,भवितुमुचितमेवेत्यर्थः, तथा अतिरूपः अतिमात्रसौन्दर्यशाली, जनः कुतः कुत्र, सुखभाजनं रामसीतादिवत् सुखास्पदं, भवेत् ? न कुत्रापीत्यर्थः, नलस्य इदं लोकातिशायि रूपमेव दुःखनिदानं भवेदिति भावः, असौ इव दृश्यते इति अमूदृशी एतादृशी, उक्तरूपा इत्यर्थः, अदःशब्दोपपदात दृशेः 'त्यदादिषु दृशोऽनालोचने कञ्च' इति कज , 'टिडढाणा'इत्यादिना डीप , 'आ सर्वनाम्नः' इत्यात्वे 'अदसोऽसेर्दादु दो मः' इत्यूत्वमत्वे / राजकं दमयन्त्यवृतराजसमूहं रञ्जयतीति तेषां राजकरञ्जिनां तदिच्छानुकूलवादिनां, लोकानां जनानां, वाक पूर्वोक्ता निन्दोक्तिः, तस्य नलस्थ, कवीनां वन्दिनाञ्च वर्णनैः अहो ! निखिलं राजकम् अवधूय त्वया स्त्रीरत्नं लब्धं सर्वोत्तरोऽसीत्यादिस्तवैः, अपा. कृता न्यककृता तादृशकविवन्दिभिस्तारस्वरेण नलगुणवर्णनात् पूर्वोक्तनिन्दावाक तिरोहितत्वेन न श्रतिगोचरीभूतेति भावः // 3 // 'सभा ( अनेक देशोंसे आये हुए राजाओंसे भरी हुई स्वयंवर सभा) में स्त्री (दमयन्ती) * के साथसे इस ( नल ) को लज्जा नहीं आती ( अर्थात् सभामें स्त्रीके सम्बन्धसे नलको लज्जा आना उचित है, परन्तु वैसा नहीं होनेसे यह निर्लज्ज है और अत्यन्त सुन्दर आदमी कहां सुखी होता है अर्थात् कहीं भी सुखी नहीं होता।' ऐसी दमयन्तीको नहीं पानेवाले राज-समूहको प्रसन्न करनेवाले बन्दियों की स्तुतिको उस ( नल, अथवा-उन अर्थात् नल. दमयन्ती ) के कवियों तथा बन्दियों के वर्णनों ( स्तुति-वचनों ) ने दबा दिया ( पाठा०दबा दिया, अथवा-प्रसन्न करनेवाले बन्दियोंकी वाणीको "वर्णनोंने अवाणीकर दिया ) अर्थात् नलके बन्दियों के द्वारा किये गये उच्च स्वरयुक्त वर्णनसे उक्त नलकी निन्दा करनेवाले बन्दियों के वचन स्पष्ट नहीं सुनायी पड़े, किन्तु ये भी कुछ बोल रहे हैं ऐसी ध्वनिमात्र सुनाई पड़ी। [ 'अत्यन्त सुन्दर व्यक्ति कहांसे सुख पाता है' अर्थात् अत्यन्त सुन्दर होने के कारण सीता तथा रामचन्द्रने जिस प्रकार बहुत दुःख भोगे, उसी प्रकार इन्हें ( नल तथा दमयन्तीको ) भी दुःख भोगने पड़ेंगे' ऐसे भविष्यकी ओर संकेत किया है। अथवा'अत्यन्त सुन्दर व्यक्ति कहांसे सुख पाता है' अर्थात् आपलोग अत्यन्त सुन्दर हैं, यह नल अधिक सुन्दर नहीं है, इसी ( अत्यन्त सुन्दर होने) के कारण आपलोगोंको अगुणज्ञा दमयन्तीने वरण नहीं किया और आपलोग दुःख पारहे हैं अर्थात् पति-पत्नी दोनोंका सुन्दर होना असम्भवप्राय है, इत्यादि असत्य स्तुतियोंसे दमयन्ती के वरण नहीं करनेसे उदासीन नलेतर राजाओंको प्रसन्न करने के लिए बन्दी नलकी उक्त प्रकारसे निन्दा कर रहे थे, वह वचन नलप्रशंसक कवियों एवं बन्दीलोगों के द्वारा उच्चस्वरसे की गयी स्तुतियोंसे सुनायी नहीं पड़ा ] // 3 // अदोषतामेव सतां विवृण्वते द्विषां मृषादोषकणाधिरोपणाः / न जातु सत्ये सति दूषणे भवेदलीकमाधातुमवद्यमुद्यमः / / 4 / /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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