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________________ 88. नैषधमहाकाव्यम्। तत्कृतां भैमीगुणकीर्तनकारिणां बन्दिनाम् करोतेः क्विप् / विशिष्य अन्यवन्द्यपेक्षया अतिशय्य, सुबहूनि भूयिष्ठानि, वसूनि धनानि, वर्षन् वितरन् , निजाम् आत्मीयाम्, उपकार्याम् उपकारिकां, सदनमित्यर्थः, शिविरमिति यावत् , 'सौधोऽस्त्री राजसदनमुपकार्योपकारिका' इत्यमरः / अयासीत् अगमत् / यातेलुङि 'अमरमनमातां सक च' इति सगिडागमौ; 'अस्तिसिचोऽपृक्ते' इतीडागमः / वंशस्थविलं वृत्तम् // 2 // इस ( देवोंको प्रसन्नकर दमयन्तीके वरण करने तथा नल-दमयन्तीके लिए वर देकर उन चारों देवों के स्वर्गलोकको जानेके लिए तत्पर होने ) के बाद निषधराज ( नल ) भी बन्दिजनों के लिए ( स्ववरणजन्य हर्षके उपलक्ष्यमें ) बहुत धनोंकी वृष्टि करते ( दान देते) हुए तथा दमयन्तीके गुणकीर्तन करनेवाले बन्दिजनोंको अधिक दान देते हुए अपने शिविर को गये // 1 // तथा पथि त्यागमयं वितीर्णवान् यथाऽतिभाराधिगमेन मागधैः / तृणीकृतं रत्ननिकायमुच्चकैश्चिकाय लोकश्चिरमुछमुत्सुकः / / 2 / / तथेति / अयं नलः, पथि स्वनिवेशमार्गे, तथा तेन प्रकारेण, त्यज्यते इति त्यागं धनम कर्मणि घज / वितीर्णवान् दत्तवान् , यथा येन प्रकारेण, अतिभारस्य अतिगुरुत्वस्य, अधिगमेन प्राप्त्या, मागधैः वन्दिभिः, तृणीकृतं वोढुमशक्यत्वेन तृणवत् त्यक्तम् , उच्चकैः उच्छ्रितं, रत्नानां निकायं समूह, लोकः साधारणो जनः, उत्सुकः आग्रहान्वितः सन् , चिरं बहु कालम् , उञ्छ चिकाय भुवि त्यक्तं रत्ननिकायम उन्छत्वेन सञ्चितवान् / यद्यपि धान्यानां कणश आदानमेव उछस्तथाऽपि रत्नानामादाने औपचारिको बोध्यः / 'विभाषा चेः' इति चिजः कुत्वम् / .'उन्छः कणश आदाने कणिशाद्यर्जनं शिलम्' इति यादवः॥२॥ इस ( नल ) ने मार्गमैं इतना दान दिया कि अत्यधिक भार ( बोझ ) होनेसे बन्दिजनों के द्वारा ( भाराधिक्य के कारण या अपेक्षा नहीं रहने के कारण ) तृण किये अर्थात् तृणवत् तुच्छ समझकर भूमिपर छोड़े गये श्रेष्ठ रत्न-समूहको उत्सुक लोगोंने बहुत देर तक उञ्छ किया ( एक 2 रत्नको चुंगते ( उठा उठा लेते ) रहे ) / ( अथवा-छोड़े गये रत्न-समूहको बहुत उत्कण्ठित लोगोंने....)। [ नलने चारण-भाट आदि बन्दिजनोंके लिए इतने अधिक रत्नोंको दिया कि वे सब अधिक बोझ या इच्छापूर्ति हो जानेके कारण उत्कण्ठित होकर अन्नके दानोंके समान बहुत देर तक चुंगते रहे ] // 2 // त्रपाऽस्य न स्यात् सदसि प्रियाऽन्वयात् ? कुतोऽतिरूपः सुखभाजनं जनः / अमूदृशो तत्कविवन्दिवर्णनैरपाकृता राजकरञ्जिलोकवाक् / / 3 // 1. 'वितेतिवान्' इति पाठान्तरम्। 2. 'मुन्छकः' इति पाठान्तरम्।। 3. 'रवक्कृता' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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