________________ नैषधमहाकाव्यम् / तथा-द्विजानां ब्राह्मणानां राजा चन्द्रः / गरुडस्तु पक्षिणां राजा, तादृशौ। तथा-हरिणेन कलङ्कमृगेणाश्रितश्चन्द्रः, गरुडस्तु हरिणा विष्णुना वाहनार्थेनाश्रितः, तादृशौ / एवमुभयोः साम्यात्सम एव व्यापारे यन्नियुक्तौ तदुचितं कृतमिति भावः। काश्यपिः, बाह्वादिस्वादि / / 89 // ___ उस देव ( पुराणपुरुष-श्रीविष्णु भगवान् ) ने इस चन्द्रमा तथा गरुड़की समानता देखकर दो पक्ष ( शुक्लपक्ष तथा कृष्णपक्ष, पक्षा०-दो पङ्ख) धारण करनेवाले, द्विजों (ब्राह्मणों, पक्षा-पक्षियों) के स्वामी, हरिणसे आश्रित अर्थात् मृगयुक्त (पक्षा०विष्णुसे आश्रित ) उन दोनोंको जो नेत्रके कार्य ( देखने, पक्षा०-ढोने के कार्य अर्थात् वाहन बनने ) में नियुक्त किया, यह उचित है // 89 // यैरन्वमाथि ज्वलनस्तुषारे सरोजिनीदाहविकारहेतोः / तदीयधूमौघतया हिमांशौ शङ्के कलङ्कोऽपि समर्थितस्तैः // 10 // यैरिति / यः पण्डितैः सरोजिन्याः दाहरूपाद्विकाराद्धेतोस्तुषारे ज्वलनोऽग्निरन्वमायि / तुषारः साग्निर्भवितुमर्हति, सम्बन्धे सति दाहकारित्वात् , साग्निभूदेश: वत्, तप्तोदकवद्वेति हिमे विषये वह्निरनुमित इत्यर्थः / तैः पण्डितैर्हिमांशी तुषारमये चन्द्रे वर्तमानः कलङ्कोऽपि तदीयधूमौघतया हिमाग्निसंम्बन्धिधूमसमूहरूपत्वेन सम. थित इत्यहं शङ्के। वह्नौ हि धूमेन भाव्यम्, चन्द्रश्च तुषारमयत्वादुक्तरीत्या वह्निमान्, तथा च कलङ्को धूमसमूह एवेति तैः समर्थितमित्यहं संभावयामोत्यर्थः // 90 // जिन ( विद्वानों ) ने कमलिनीका दाहक होनेसे तुषारमें अग्नि होनेका अनुमान किया, उन (विद्वानों ) ने ( तुषारमय ) चन्द्रमामें कलङ्कको भी उस (तुषार ) का धूम-समूह होने का समर्थन कर दिया, ऐप्ता मैं जानती हूँ। [ जहाँ अग्नि रहती है, वहां धूम भी संभव है, अत एव तुषारमें अग्निका समर्थन करनेवालोंने उसमें धूमका भी समर्थन कर दिया, इस प्रकार तुषारमय चन्द्रमें अग्निके साहचर्यसे कृष्णवर्ण कलङ्क भी धूम-समूह ही है ऐसा कहना चाहिये ] // 90 // स्वेदस्य धाराभिरिवापगाभिाप्ता जगद्भारपरिश्रमार्ता / छायापदेशाद्वसुधा निमज्ज्य सुधाम्बुधावुज्झति खेदमत्र / / 61 / / स्वेदस्येति / वसुधा छायापदेशात्स्वीयप्रतिबिम्बव्याजेन सुधाम्बुधावत्र चन्द्रे निमज्ज्यान्तः प्रविश्य खेदं जगद्भारपरिश्रमपीडामुज्झतीव / किंभूता ? जगद्भारवहन. निमित्तः परिश्रमस्तेनार्ता नितरां पीडिता / अत एव-स्वेदस्य धाराभिरिवापगाभि. ाप्ता समन्तात्पूरिता / अमृतसमुद्रनिमजने हि खेदो गच्छत्येव / यस्याश्च तत्तन्नदीरूपः स्वेदः, तस्याः श्रमहरणे सुधासमुद्र एवोचितः। एतेन कलङ्कस्य मृगशशभू. च्छायाप्रभृति मदभेदा वर्णिताः // 9 // संसारके भार (धारण करने ) के परिश्रमसे थकी हुई ( अत एव ) पसीनेके प्रवाहके