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________________ द्वादशः सर्गः। 775 तल अर्थात् भूतलके अलङ्कार बने हुए उस नल या इन्द्रादि चारों देव या समस्त सभासदों के लिए पातालकन्याकी भ्रान्ति उत्पन्न करती हुई; अथवा-उस पातालतलके अलङ्कार बने हुए शेषनागके लिए पातालकन्याकी भ्रान्ति उत्पन्न करती हुई। अथवा 'तन्नला०' पा०उन असत्य नलों ( इन्द्रादि चारों देवों ) के अपने सौन्दर्यसे अलङ्कार होते हुए सत्यनलके लिए पातालकन्याकी भ्रान्ति उत्पन्न करती हुई ) / [ दमयन्ती ने अदृष्ट प्रेरणावश असत्य नल इन्द्रादिको सामान्य दृष्टिसे ही देखा तथा सत्यनलको सानुराग देखकर अतिशय हर्षित हुई तथा उसे देखकर स्वयंवरस्थ सभासदोंको या इन्द्रादि देवोंको या नलको भी यह नागकन्या है क्या ?' ऐसा भ्रम हो गया ] // 111 // सर्वस्वं चेतसस्तां नृपतिरपि दृशे प्रीतिदायं प्रदाय प्रापत्तदृष्टिमिष्टातिथिममरदुरापामपाङ्गोत्तरङ्गाम् | आनन्दान्ध्येन बन्ध्यानकृत तदपराकूतपातान् स रत्याः पत्या पीयूषधाराबलनविरचितेनाशुगेनाशु लीढः / / 112 / / . सर्वस्वमिति / नृपतिरपि सत्यनलोऽपि, चेतसो हृदयस्य सर्वस्वं सर्वधनभूता, हृदयात् अनपेतामित्यर्थः, तां दमयन्ती, दृशे स्वचक्षुषे, प्रीतिदायं पारितोषिकदानं, 'दायो दाने यौतुकादिधने वित्ते च पैतृके' इति वैजयन्ती, प्रदाय पूर्वं निरन्तरध्यानेन मनसैव सा साक्षात्कृता, इदानीं चक्षुषा तां साक्षात्कृत्येति भावः, अमरैरपि दुरापां दुष्प्रापाम, अपाङ्ग उत्तरङ्गां तरङ्गिन्तां, तस्याः दमयन्त्याः , दृष्टिं तत्कटाक्षरूपदृष्टिमेव, इष्टातिथिं प्रियबन्धु, प्रापत् लब्धवान् , स्वयञ्च तया कटाक्षेण वीक्षित इत्यर्थः; अथ स नृपः, रत्या कामेन, पीयूषधाराबलनविरचितेन अमृतधारानिष्यन्दलिप्तेन, आशुगेन शरेण, तत्तिर्यगदृष्टिरूपेणेत्यर्थः, आशु लीढः विद्धः सन् , आनन्देन आन्ध्यं मोहं, पारवश्यमिति यावत् , तेन, तदपरान् तस्या भैमीदृष्टेः, अपरान् प्रथमदृष्टिपातानन्तरभाविनः, आकृतेन पातान् साभिलाषदृष्टिपातान् , बन्ध्यान् अफलान् , अकृत कृतवान् , प्रथमदृष्टिपातजनितानन्दमग्नस्तस्यास्तदनन्तरदृष्टिपातान् नावलोकयामासेत्यर्थः॥ 112 // राजा ( नल ) ने भी हृदय-सर्वस्व उस ( दमयन्ती ) को दृष्टिके लिए पारितोषिक देकर अर्थात् देखकर सामान्य रूपसे देखे जानेके कारण नलरूपमें वहाँ बैठे हुए इन्द्रादि देवों ( या देवमात्र ) से दुर्लभ अत्यन्त चञ्चल कटाक्ष युक्त उस ( दमयन्ती ) की दृष्टिरूपी प्रिय अतिथिको प्राप्त किया अर्थात् नलके देखनेके बाद दमयन्तीने फिर दुबारा नलको कटाक्षोंसे देखा / ( तदनन्तर ) रतिपति ( कामदेव ) के द्वारा ( अतिशय आनन्दप्रद होनेसे ) अमृतधारारूप वलन ( मुखको कुछ मोड़कर देखने ) से बनाये (पक्षा०--अमृतधारासे सिक्त किये ) गये बाणसे विद्ध ( पाठा०--शीघ्र विद्ध) उस (नल ) ने आनन्दजन्य अश्रुसे परिपूर्ण
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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