________________ 776 नैषधमहाकाव्यम्। नेत्र होने के कारण देखनेमें अशक्त होनेसे उस (दमयन्ती) के द्वारा किये गये अनेक भावोंसे पूर्ण कटाक्षोंको व्यर्थ कर दिया अर्थात् दमयन्तीके किञ्चित् मुख फेरकर कटाक्षपूर्वक देखनेसे ही अमृतधारासे आप्लुत नल हर्षाश्रुपूर्ण होकर कामपीडित हो दमयन्तीके साभिप्राय अन्य कटाक्षोंको नहीं देख सके। [अन्य भी कोई व्यक्ति प्रसन्न होकर किसीके लिये हृदयके सर्वस्वको पारितोषिकमें दे देता है तथा अभीष्ट अतिथिको पाकर आनन्दजन्य अश्रुओंसे नेत्रोंको भर लेता है / नलके द्वारा सानुराग देखी गयी दमयन्तीने नलको पुनः देखा, जिससे कामपीडित उनके नेत्र हर्षाश्रुसे पूर्ण हो गये अत एव उन्होंने फिर दमयन्तीके द्वारा साभिप्राय ( अनेक भावपूर्ण) किये गये कटाक्षोंको नहीं देखा ] // 112 / / श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरः सुतं श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / तस्य द्वादश एष मातृचरणाम्भोजालिमौलेमहा काव्येऽयं व्यगलन्नलस्य चरिते सर्गो निसर्गोज्ज्वलः // 113 / / श्रीहर्षमिति / मातृचरणाम्भोजयोः अलिमौलेः भृङ्गायमाणमौलेरित्यर्थः // 113 // इति मल्लिनाथविरचिते 'जीवातु' समाख्याने द्वादशः सर्गः समाप्तः। कवीश्वर-समूहके "उत्पन्न किया, माता ( वागीश्वरी देवी, अथवा-जननी मामल्ल देवी) के चरण-कमलोंमें भ्रमर तुल्य बने हुए मस्तकवाले / ( अथवा--माताके चरणों के ( पूजार्थ चढ़ाये गये ) कमल-समूह युक्त मस्तकवाले अर्थात् माताके चरण पर चढ़ाये गये कमलपुष्पसमूहको मस्तक पर लिये हुए) उसके रचित 'नल चरित' "यह द्वादश सर्ग समाप्त हुआ। शेष व्याख्या चतुर्थ सर्गके समान समझनी चाहिये / यह 'मणिप्रभा' टीकामें 'नैषधचरित' का द्वादश सर्ग समाप्त हुआ // 12 //