________________ त्रयोदशः सर्गः। कल्पद्रुमान् परिमला इव भृङ्गमालामात्माश्रयां निखिलनन्दनशाखिवृन्दात् / तां राजकादपगमय्य विमानधुर्या निन्युर्नलाकृतिधरानथ पञ्च वीरान् / / 1 / / __कल्पद्रमानिति / अथ नले कटाक्षपातानन्तरं, विमानधुर्याः शिविकाभृतः आ. त्माश्रयाम् आत्मा स्वम्, आश्रयोऽधिकरणं यस्याः तां स्वाधारां, स्ववाह्यविमानावस्थितत्वेन परम्परया धुर्याश्रितामित्यर्थः, तां दमयन्तों, परिमलाः, सौरभविशेषाः, आत्माश्रयां स्वोपजीविनी, परिमलाश्रितामित्यर्थः, भृङ्गमालां निखिलात नन्दनशाखिवृन्दात् अपगमय्य कल्पद्रमान् पञ्चामरतरूनिव, राजकान् राजसमूहात् , गोत्रोक्षोष्ट्रोरभ्रराज-' इत्यादिना समूहाथै वुज , अपगमय्य अपनीय, नलाकृतिधरान् नलरूपधारिणः; यस्य या आकृतिस्तद्धारित्वं तस्यापि सम्भवतीति नलस्यापि नलाकृतिधारित्वं सङ्गच्छते; पञ्च वीरान् नलसहितान् इन्द्रादीन् , निन्युः प्रापयामासुः॥१॥ जिस प्रकार मनोहर गन्ध स्वोपजीविनी भ्रमरपंक्तिको नन्दनवन ( इन्द्रोद्यान) के वृक्षसमूहोंसे हटाकर कल्पद्रुमों ( कल्पद्रुम आदि पांच देववृक्षों) के पास ले जाती है, उसी प्रकार विमानवाहक आत्माश्रयिणी (अपने कन्धेपर स्थित पालकी पर सवार हुई ) उस ( दमयन्ती) को राज-समूहसे हटाकर नलके आकार को ग्रहण किये हुए पांच वीरों (इन्द्र अग्नि, यम, वरुण और नल) के पास ले गये। [मनोभिलाषके पूरक होनेसे मन्दार, पारिजात, हरिचन्दन और सन्तान वृक्षों के लिए भी 'कल्पद्रुम' शब्द का ही प्रयोग किया गया है। मन्दार, पारिजात, हरिचन्दन, सन्तान और कल्पवृक्ष, ये पांच देववृक्ष हैं तथा स्वयंवरमें इन्द्रादि चार देव एवं नल; ये पांच वीर हैं। नलके आनेका निश्चय विमानबाहकोंको नहीं होनेसे यहां सभीको नलरूपधारी कहा गया है ] // 1] साक्षात्कृताखिलजगज्जनताचरित्रा तत्राधिनाथमधिकृत्य दिवस्तथा सा / ऊचे यथा स च शचीपतिरभ्यधायि प्राकाशि तस्य न च नैषधकायमाया।। साक्षादिति। अथ पञ्चवीरप्रापणानन्तरं साक्षात्कृतम् अखिलजगत्सु जनताया जनसमूहस्य, चरित्रं यया ताहशी, सा सरस्वती, तत्र पञ्चसु मध्ये, दिवोऽधिनाथम् इन्द्रम्, अधिकृत्य निर्दिश्य, तथा तेन प्रकारेण, ऊचे उवाच, यथा येन प्रकारेण, स च शचीपतिः इन्द्रः, अभ्यधायि अभिहितो भवति, तस्य इन्द्रस्य, नैषधकायमाया नलरूपकल्पना च, न प्राकाशि न प्रकाशिता भवति // 2 // सम्पूर्ण संसारके जन-समूहके चरित्रका साक्षात्कार करनेवाली उस ( सरस्वती देवी ) ने उन ( नलाकृतिधारी पांच वीरों) में स्वर्गाधीश ( इन्द्र) को लक्षितकर वैसा कहा अर्थात् वर्णन किया, जिससे इन्द्र कहे गये अर्थात् इन्द्रका ज्ञान हो गया और उसकी नलके शरीर (धारण करने ) का कपट प्रकट नहीं हुआ // 2 //