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________________ 774 नैषधमहाकाव्यम् / त्याग करनेपर उनके शत्रु कामदेवका ( पुष्प होनेसे बाणरूप होकर ) आश्रय किया, उसी प्रकार रोमाञ्चादिसे युक्त काञ्चनकेतकीके तुल्य दमयन्तीने नलको ही कामदेव समझकर शिवजीके क्रोधसे उस नलका ही आश्रय चाहा अर्थात् दमयन्ती नलासक्त हो गयी। अथवा--जिस प्रकार केतकी शिवजीके क्रोधका निवासार्थिनी बनी अर्थात् शिवजीका कोप स्थान बनी, उसी प्रकार दमयन्ती भी नलको नलवैरी कामदेव ही नलके सम्बन्धसे मुझे पीड़ित कर रहा है इस बुद्धिसे शिवजीके क्रोधका स्थान बन गयी अर्थात् कामदेवपर क्रोधित हो गयी / शिवजीके कामदेव तथा केतकीके साथ विरोध होनेकी पौराणिकी कथा पहले लिखी जा चुकी है ] // 110 // तन्नालीकनले चलेतरमनाः साम्यान्मनागप्यभू. दप्यग्रे चतुरः स्थितान्न चतुरा पातुं दशा नैषधान् | आनन्दाम्बुनिधौ निमज्ज्य नितरां दूरं गता तत्तला लङ्कारीभवनाजनाय ददती पातालकन्याभ्रमम् / / 111 // तदिति / सा दमयन्ती तत् तस्मिन् , नालीकनले अलीकनलो न भवतीति नालीकनलस्तस्मिन् सत्यनले इत्यर्थः, चलेतरमना अदृष्टवशात् निश्चलचित्ता सती, तत्रैव दृढानुरागिणी सतीत्यर्थः, आनन्दाम्बुनिधौ निमज्ज्य नितरां दूरं गता आनन्दस्य चरमसीमां गता, अन्यत्र-समुद्रस्य तलं प्राप्ता, तस्य तलस्य अलङ्कारीभवनात् आभरणीभावात्, अन्यत्र-तत्रावस्थानादित्यर्थः,जनाय आलोकयितृजनाय, पातालकन्याभ्रमं नागकन्याभ्रमं, ददती सौन्दर्यातिशयात् आनन्दातिशयजनितनिमेषरहितत्वात् समुद्रतलगमनाञ्च किमियं नागकन्येति बुद्धि जनयन्ती सती अग्रे स्थितानपि चतुरो नैषधान् इन्द्रादिमायानलान् , साम्यात् सत्यनलसादृश्यात् , मना. गीपत् अपि, दृशा कटाक्षेण, पातुं द्रष्टुं, 'शकष-' इत्यादिना अस्त्यर्थयोगात्तुमुन् चतुरा निपुणा, नाभूत् ; सा दमयन्ती व्यवहितमपि सत्यनलं प्राक्तनादृष्टवशात कटाक्षः पश्यति स्म इन्द्रादिमायानलांस्तु सम्मुखस्थान् ऋजुदृष्टयैव पश्यति स्मेति तात्पर्यम् // 111 // __ उस सत्य नलमें स्थिर चित्तवाली, आनन्दसमुद्रमें अच्छी तरह डूबकर ( अत्यन्त हर्षित होकर ) अत्यन्त दूर गयी हुई हर्षकी परम सीमाको प्राप्त ( पक्षा०--आनन्दसमुद्रके बहुत अगाध-तलमें गयी हुई ) और उसके तल अर्थात समुद्रके अगाध तल ( पाताल ) का अलङ्कार बननेसे लोगों ( वहांके निवास करनेवालों ) के लिए पातालकन्या अर्थात् नागकन्याकी भ्रान्ति उत्पन्न करती हुई चतुरा दमयन्ती सामने बैठे हुए भी चार असत्य नल अर्थात् कपटसे नलका रूप ग्रहण कर स्वयंवर में सामने बैठे हुए इन्द्र, वरुण, यम और अग्निरूप चारों देवों को थोड़ी दृष्टिसे भी पान करनेके लिए नहीं समर्थ हुई। ( अथवा पाठा०--उस 1. 'तन्नला' इति पा०। 2. 'भवते जनाय' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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