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________________ द्वादशः सर्गः। स्वयं अनङ्ग अर्थात् अङ्गहीन कामदेव कानतक स्पर्श करनेवाली अर्थात् विशाल ( पक्षा०–कानतक बैंचे हुए) नकली दृष्टिरूपी बाणसे, ( तथा नलके ही ) हाथमें चक्र (चक्राकार रेखा ) रूप नम्र ( झुके हुए ) धनुषवाला होता हुआ दूसरे ( नलके ) अङ्गों ( नेत्र तथा हाथकी चक्राकार हस्तरेखा ) से धनुर्धर बनकर वधू (दमयन्ती) को पीडित कर दिया। [जिस प्रकार लोकमें किसी वस्तु आदिके अप्राप्य होनेपर उसके स्थानमें दूसरी वस्तुसे काम चलाया जाता है, यथा-कुशके अभावमें काश से; उसी प्रकार अङ्ग, बाण तथा धनुषसे हीन कामदेवने क्रमशः नलके अङ्ग, दृष्टि तथा करस्थ चक्राकार रेखाके द्वारा अङ्ग, बाण तथा धनुषका अनुकल्पकर दमयन्तीको पीडित किया। नलके देखनेपर दमयन्ती काम-पीडित हो गयी ] // 109 // उत्कण्टका विलसदुज्ज्वलपत्रराजिरामोदभागनपरागतराऽतिगौरी / रुद्रक्रधस्तदरिकामधिया नले सा वासार्थितामधृत काञ्चनकेतकीव / / 110 / / उत्कण्टकेति / उत्कण्टका उद्गतपुलका, अन्यत्र-उदग्रसूचिका, विलसन्ती शोभमाना, उज्ज्वला नीलपीतादिवर्णदीप्ता, कान्तिमती च, पत्रराजिः पत्ररचना, अन्यत्र-दलपतिः यस्याः सा, आमोदं हर्ष, परिमलञ्च भजतोति आमोदभाक भजो ण्विः / 'आमोदो गन्धहर्षयोः' इति विश्वः, अतिशयेन अपगतरागा न भवतीत्यनपरागतरा अतिशयानुरागवती अन्यत्र-नास्ति परागः पुष्परजो यस्यामिति अपरागा, अतिशयेन सा न भवतीति अनपरागतरा अतिशयपरागयुक्ता इत्यर्थः, उभयत्राप्यतिशयार्थे तरप , गौरी पार्वतीम् अतिक्रान्ता गुणरित्यतिगौरी अत्यन्तगौरवर्णति चोभयत्रापि योज्यम् ; सा दमयन्ती, रुद्रधः रुद्रे महादेवे, क्रुधः शापाधीनस्वपरित्यागजन्यक्रोधात् , तदरिकामधिया अयं रुद्रशत्रुः काम इति भ्रान्त्या, आगता इति शेषः, काञ्चनकेतकीवेत्युत्प्रेक्षा, नले वासार्थितां स्वयंवरेण निवासाकासाम् , अमृत धृतवती, धरतेः कर्तरि लुङ्, स्वरितत्वात्तङ् ; दमयन्ती नलाभिला. षुका आसीत् इति तात्पर्यम् // 110 // कण्टकों ( सूचीके समान कांटों, पक्षा०-रोमाञ्चों ) से युक्त, विलसित अर्थात् शोभमान श्वेत पत्रसमूहवाली ( पक्षा०-शोभमान श्वेत वर्ण या अनेक वर्ण होने से सुन्दर ) स्तन कपोलादिमें चन्दनादिसे बनाये गये मकरी आदिके आकारवाली ( पत्ररचना वाली), म्वभावतः सुगन्धवाली ( पक्षा०--चन्दनादिके लेपसे शरीरमें तथा पान वीडा आदिसे मुखमें सुगन्धिवाली ) अत्यन्त अनपराग अर्थात् बहुत पराग ( पुष्पराज ) से युक्त ( पक्षा०-- अत्यधिक वैराग्यसे रहित अर्थात् अतिशय अनुरक्त ) और अत्यन्त गौरवर्णवाली ( अथवा-- पार्वतीको अतिक्रान्त ) उस दमयन्तीने काञ्चनमयी केतकीके समान शिवजीके क्रोधसे नलमें उस ( शिवजीके ) शत्रुरूप कामदेवकी बुद्धिसे निवास करनेकी इच्छा की अर्थात् वह नल के कटाक्षसे देखनेपर उनमें आसक्त हो गयी। [ जिस प्रकार शत्रुके क्रोध करनेपर कोई व्यक्ति उसके शत्रुका आश्रय करता है, अतः उत्कण्टक आदि गुणों से युक्त केतकीने शङ्करजीके
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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