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________________ 1072 नैषधमहाकाव्यम् / ..किञ्च, न्यायमतसिद्ध ईश्वरोऽपि नास्ति यत्प्रसादात् मुच्येमहीत्याह-देव इति / सर्वज्ञः भूतभविष्यद्वर्त्तमानयावद्वस्तुविषयकज्ञानवान् , करुणाभाक कारुणिकः, वैष. म्य धुण्यरहितबुद्धिः इत्यर्थः / अबन्ध्यवाक् अमोघवचनः, वेदरूपसत्यवचन इत्यर्थः / यथोक्तार्थसम्पादकवचन इत्यों वा, देवः ईश्वरः, अस्ति विद्यते, चेत् यदि, तत् तर्हि, अर्थिनः मोक्षार्थिनः, नः अस्मान् , वागव्ययमात्राद् भवन्तो मुक्ता भवन्विति वाक्यो. वारणमात्रेण, किं कथं, न कृतार्थयति ? न मोचयतीत्यर्थः / स सर्वज्ञादिविशेषणत्रयविशिष्टोऽपि याद न मोचयितुं समर्थो भवति, तदा स नास्त्येवेति भावः // 76 / / सर्वज्ञ ( भूत भविष्य वर्तमानके समस्त कार्योको जाननेवाला), दयालु और ( वेदरूप) सत्यवचनवाला ( अथवा-सदा-सर्वदा सफल वचनवाला ) देव ( ईश्वर ) है तो वह मुशिमुक्ति के इच्छुक हम लोगोंको केवल वचनमात्रसे ( 'तुम लोग मुक्त हो गये' इतना कहनेमात्र ) क्यों नही कृतार्थ करता है ? [ यदि वह नैयायिक-सम्मत उक्त गुणों वाला 'ईश्वर' होता तो केवल वचनमात्रसे हमलोगों को मुक्त कर देता, किन्तु ऐसा नहीं करता इसलिए मानना पड़ता है कि 'ईश्वर' नामक कोई देव नहीं है ] // 76 // अविनां भावयन् दुःखं स्वकमजमपीश्वरः / स्यादकारणवैरी नै कारणादपरे परे / / 77 / / कर्ममीमांसकमतं दूषयति-भविनामिति / भविनां संसारिणां, स्वकर्मजं निज कर्मजातम् अपि, दुःखं क्लेशं, भावयन् दुःखोत्पत्तौ औदासीन्यं विहाय निमित्तं भवन् : दुःखोत्पत्तौ प्रवर्तयन् वा, ईश्वरः नः अस्माकम् , अकारणात् अहेतोः, वैरी शत्रुः, स्थात् भवेत् , अपरे अन्ये, कारणात् अन्योऽन्यापकारलक्षणात् निमित्तात् , परे वैरिणः, भवन्ति इति शेषः / अतः सोऽपि न विश्वसनीयः इति भावः // 77 // संसारियों के अपने कर्मजन्य दुःखोंकी प्राप्त करता हुआ अर्थात् स्वकर्मानुसार दुःख भोगनेमें निमित्त होता हुआ ईश्वर हमलोगोंका अकारण शत्रु बनता है, दूसरे लोग तो (स्त्री-धनादिके अपहरण आदिरूप परस्पर अपकार करने के ) कारणसे वैरी होते हैं। [संसारियोंको यदि अपने-अपने कर्मानुसार दुःखादि भोगना हो है तो ईश्वरका उस दुःखको संसारियों के द्वारा भोगनेमें निमिता होना केवल हम संसारियोंके साथमें अकारण द्वेष करना ही है, अतः दूसरे लोग तो परस्परमें अपकार करने के कारण किसीका वैरी बनते हैं, किन्तु वह ईश्वर तो अकारण ही दुःख भोग कराने में निमित होकर हम संसारियों के साथ द्वेष करता है, अत एव 'वह ईश्वर कारुणिक आदि गुणोंसे युक्त है' यह कथन सर्वथा मिथ्या है, इस कारण दुःख भोग करने में कर्मकी प्रधानता होनेसे ईश्वर है ही नहीं ] // 77 // 1. 'कारणवैरी न' इति पाठे काका व्याख्येयम् , इति सुखावबोधा इति म० म० शिवदत्तशर्माणः / तत्र तथा पाठाङ्गीकारे छन्दोभङ्गात् 'स्यान्न कारणवैरी नः' इति पाठः साधुः प्रतिभाति /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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