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________________ सप्तदशः सर्गः। 1071 अवेत जानीत / अवपूर्वादिणो मध्यमपुरुषबहुवचनम् / एवञ्च सति यथा विस्थ तं गोपशुश्रेष्ठत्वेन यथा जानीथ / वेत्तेः पूर्ववद्रपम् / सः तथा एव मन्मतेऽपि सः अर्थतोऽपि गोतमः गोपशुश्रेष्ठ एव, शिलावस्थास्वरूपमोक्षोपदेशाद् गोतमः पशुतमः, मूढतमः एवेत्यर्थः / यौगिकोऽयं शब्दो न तु योगरूढः, वैशेषिका अपि न्यायमतानुसारितया तद्पा इति भावः॥ 74 // जिस ( न्याय वैशेषिककार गोतम मुनि ) ने चेतनायुक्त प्राणियोंके ( सुख-दुःखादिका अनुभव नहीं होनेसे ) पाषाणस्वरूपा मुक्तिके लिए ( न्यायवैशेषिक ) ग्रन्थ बनाया, उसे गोतम ( 'गोतम' नामक मुनि, पक्षा०-विशिष्ट गौ पशु ) ही जाने और जैसा (गोतम = उस नामवाले मुनि, पक्षा०-विशिष्ट गौ पशु ) जानते हो, वह वैसा ( महापशु) ही है। [ न्यायवैशेषिककार गौतम मुनिका सिद्धान्त है कि 'मुक्ति होनेपर तत्वज्ञान हो जानेसे प्राणीको मिथ्या सुख-दुःखादिका अनुभव नहीं होता' यही 'तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्गः' वाक्यका आशय है, उसीका कलि के मुखसे उपहास करता हुआ चार्वाक कहता है कि प्राणीको यदि सुख-दुःखका अनुभव ही नहीं होता तो वह पाषाणतुल्य है और उसे ही मुक्ति मरनेवाला गोतम मुनि केवल नामसे ही 'गोतम' (विशिष्ट गोरूप पशु ) नहीं है, किन्तु अर्थसे भी 'गोतम' (विशिष्ट गोरूप पशु ) है ] // 74 // दारा हरिहरादीनां तन्मग्नमनसो भृशम् / किं न मुक्ताः ? पुनः सन्ति कारागारे मनोभुवः / / 75 / / हरिहरहिरण्यगर्भोपासनया मुक्तिरिति मतं निरस्यति-दारा इति / हरिहरादीनां दाराः लचम्यादयः स्त्रियः, भृशम् अत्यर्थ, तेषु हरिहरादिषु एव, मनमनसः लग्न. चित्ताः, तद्भावभाविताः सन्तः अपि इत्यर्थः / किं कथं, न मुक्ताः ? मोक्ष न प्राप्ताः? प्रत्युत मुक्तिः दूरे आस्तां, मनोभुवः कामस्य, कारागारे बन्धनालये / 'कारा स्याद् बन्धनालये' इत्यमरः / पुनः सन्ति सदैव कामपरवशा वर्तन्ते, अतो हरिहरायपामनया मुक्तिप्रतिपादकं ततच्छास्त्र मिथ्यैवेति भावः // 75 // विष्णु तथा शिव आदिकी ( लक्ष्मी, गौरी आदि) स्त्रियां उन (विष्णु तथा शिव आदि ) में अत्यन्त संलग्नचित्ता हैं तो वे क्यों नहीं मुक्त हो गयीं ? (प्रत्युत) वे तो कामदेवके कारागार ( जेल = बन्धन ) में हैं अर्थात् कामके परवश हैं। [विष्णु तथा शिव आदिके ध्यान-पूजन आदिसे ही मुक्ति होती तो उनमें सत संलग्नचित्तवाली उनकी श्री लक्ष्मी, गौरी आदिको भी मुक्त हो जाना चाहिये था, किन्तु देखा जाता है कि वे मुक्त नहीं, अपितु कामके पराधीन हैं, अत एव 'सकृदुच्चरितं येन 'शिव' इत्यक्षरद्वयम्' तथा 'मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यः स मामेति पाण्डव' इत्यादि शिव तथा विष्णु आदिकी उपासनासे मुक्तिप्राप्ति बतलानेवाले शास्त्र मी मिथ्या ही हैं ] // 75 // देवश्चेदस्ति सर्वज्ञः करुणाभागबन्ध्यवाक् / तत् किं वाग्व्ययमात्रानः कृतार्थयति नार्थिनः 1 // 76 / /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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