________________ विंशः सर्गः। 1367 इस ( दमयन्तीसे सखियों के वैसा ( 201132 ) कहने ) के बाद राजा (नल ) ने उन ( सखियों ) से कहा-तुम्हारी यह सखी ( दमयन्ती ) यह कहती है कि-मेरे मर्म ( रहस्यसम्भोगवृत्तान्त ) को उन दोनों ( 'कला' तथा उसको सखो ) ने सुना है अर्थात् लेशमात्र मी देखा नहीं है; ( किन्तु ) मैंने इन दोनों के मर्म ( गोपनीय अङ्ग-स्तनादि) को देखा है अर्थात् केवल सुना ही नहीं है, अपि तु देखा भो है। [ अतएव यदि ये सुने हुए मेरे (दमयन्तीके ) रहस्यको दूसरों के सामने कहेंगी तो मैं (दमयन्ती ) इन दोनों के प्रत्यक्ष देखे हुए रहस्य-गुप्ताङ्गों का वर्णन दूसरों के सामने कर दूंगी, क्योंकि सुननेकी अपेक्षा देखने का महत्त्व अधिक होता है, अतएव इनको उपेक्षा करनेस भी मेरी कोई हानि नहीं होगी ] // मंद्विरोधितयोर्वाचि न श्रद्धातव्यमेतयोः / अभ्यषिञ्चदिमे माया-मिथ्यासिंहासने विधिः / / 134 / / मदिति / किञ्च, हे सख्यः ! मया दमयन्त्या सह, विरोधितयोः सञ्जातवैरयोः, बहिष्करणानुमोदनात् शत्रुभावापन्नयोरित्यर्थः / एतयोः सख्योः, वाचि वचने, न श्रद्धातव्यं न विश्वसितव्यम् , युष्माभिरिति शेषः / तथा हि-विधिः ब्रह्मा, इमे सख्यौ, माया कपटता, मिथ्या अनृतम् , तयोः सिंहासने भद्रासने, अभ्यषिञ्चत् जलवर्षणेन अभिषिक्तवान् , मिथ्याकपटतयोः आकरत्वेन कल्पितवानित्यर्थः / तस्मात् मयि मिथ्याचरणस्य सर्वथा सम्भावनासत्वात् एतयोः मिथ्याप्रलापो न श्रद्धयः इति निष्कर्षः // 134 // ( बाहर निकालने के कारण ) मुझ ( दमयन्ती ) से विरोध की हुई इन दोनों ('कला' तथा उसकी सखी ) की बातोंपर ( तुमलोग ) विश्वास मत करना ( क्योंकि विरोधी प्रायः अवर्तमान दोषों को ही कहते हैं ), और ब्रह्माने इन दोनोंको माया तथा असत्यके सिंहासन पर अभिषिक्त किया है अर्थात् ये माया करने एवं असत्य बोलने में सबसे बढ़ी-चढ़ी हैं। धौतेऽपि कीर्तिधाराभिश्चरिते चारुणि द्विषः / मृषामषीलवैर्लक्ष्म लेखितुं के न शिल्पिनः ? // 135 / / धौतेऽपीति / कीर्तिधाराभिः यशःप्रवाहैः धौते विशुद्ध, अत एव चारुणि मनो. हरेऽपि, द्विषः शत्रोः, चरिते स्वभावे, मृषामषीलवैः मृषा मिथ्यादोषारोप एव, मषी 'काली' इति प्रसिद्धलेखनसाधनद्रव्यविशेषः, तल्लवैः तद्विन्दुभिः, अल्पत्वात् किञ्चिन्मात्रैरिति भावः / लक्ष्म कलङ्कम्, लेखितुं चित्रितुम्, उत्पादयितुमिति यावत् / के, जना इति शेषः, न शिल्पिन: ? शिल्पकुशलाः न ? अपि तु सर्वेऽपि कुशलाः एवे. त्यर्थः / भवन्तीति शेषः / मम शुभ्रे चरित्रेऽपि इमे मिथ्याकलङ्कम् अवश्यमेव आवि. कुर्यातामिति भावः // 135 // कीर्तिधाराओं ( यशःसमूहों ) से धोये गये ( अत एव ) स्वच्छतम शत्रुके चरित ( के 3. 'मद्विराधितयोर्वाचि' इति पाठान्तरम्। 2. 'श्रद्धास्यध्वम्' इति पाठस्तु समीचीनः।