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________________ द्वाविंशः सर्गः। 1561 'पश्य, चित्रमेतद्विलोकयेत्यर्थः / अथवा युक्तमेतत्-प्रवृत्तयो धर्माधर्महेतुकर्मारम्भा अपि आत्ममय आत्मस्वरूपमेव प्रकाशो येषां तान्प्रकाशान्तरनिरपेक्षान्प्रकाशरूपान् , अथ च-परमात्मैव प्रकाशो येषां तान् परमात्मस्वरूपातिरिक्तप्रकाशानभिज्ञान्स्वप्रकाशास्मवादिनो ब्रह्मज्ञानिनोऽन्तिमदेहं तेजोरूपशरीरं पूर्णतां वा प्राप्तान् , अथ च-अनन्तरभाविमोक्षत्वात्प्राचीनशरीरप्रवाहापेक्षया शेषं शरीरं प्राप्तान् जीवनमुक्तान्पुरुषान्हि यस्मान्न नह्यन्ति, शुभाशुभफलबन्धेन न संबध्नन्तीत्यर्थः। 'तेषां तेजो विशेषेण प्रत्यवायो न विद्यते' इति प्रामाणिकवचनात्तेजोरूपस्यास्य चन्द्रस्य पातो नाभूदिति युक्तमेव, नात्र चित्रमिति भावः / चन्द्रोऽप्यात्ममयप्रकाशः अन्ति. मदेहं संपूर्णतां प्राप्तश्च // 118 // __गुरु (बृहस्पति, पक्षा०-गुरु = दीक्षागुरु या अध्ययनगुरु ) की स्त्रोके साथ सम्भोग करते हुए भी यह चन्द्रमा ( पक्षा०-ब्राह्मग) पतित नहीं हुआ अर्थात् स्वर्गसे नीचे भ्रष्ट नहीं हुआ ( पक्षा-गुरुपत्नीसम्भोगजन्य पातकसे युक्त नहीं हुआ यह आश्चर्य है, अथवा इसमें कोई आश्चर्य नहीं है ), क्योंकि स्वयं प्रकाशमान ( पक्षा०-परमात्मरूप प्रकाशको प्राप्त आत्मवादी ब्रह्मशानी ) तथा तेजोरूप शरीर या पूर्णता (अथवा-इसी देहके बाद मोक्ष जानेवाले होनेसे अन्तिम शरीर ) को पाये हुए ( जीवन्मुक्त ) लोगोंको धर्माधर्मके कारणभूत कार्यारम्मके बन्धनमें नहीं डालते हैं / [ परमात्मप्रकाशवाले एवं अन्तिम देहधारी जीवन्मुक्त ब्राह्मण-जैसे उच्च वर्णवाले लोगोंको भी जिस प्रकार धर्माधर्ममूलक कार्यारम्भका कोई बन्धन नहीं होता, उसी प्रकार गुरुपत्नीसम्भोग करनेवाले भी स्वयं प्रकाशमान इस चन्द्रमाको दोष नहीं लगना उचित ही है ] // 118 // स्वधाकृतं तत्तनयैः पितृभ्यः श्रद्धापवित्रं तिलचित्रमम्भः / चन्द्रं पितृस्थानतयोपतस्थे तदङ्करोचिःखचिता सुधैव // 11 // स्वधेति / तनयैः पुत्रैः श्रद्धया परलोकास्तित्वबुद्ध्या वितीर्णत्वात्पवित्रं कृष्णति. लैश्चित्रं मिश्रितं पितृभ्यः स्वधाकृतं यदम्भः पितृस्थानतया 'चन्द्रो वै पितृलोकः' इति श्रुतेः, पितृलोकतया चन्द्रमुपतस्थे चन्द्रेण संगतमभूत् / तस्कृष्णतिलमिश्रं जलमेवा. कस्य कलङ्कस्य यद्रोचिः कान्तिस्तया खचिता मिश्रिता सुधा पीयूषम् / कृष्णतिला एव कलङ्कः, तत्संलग्नं जलमेव पीयूषम् , नत्वन्यः कलको न नान्यत्पीयूषमित्यर्थः / श्रद्धेति, पितृलोकप्राप्ती हेतुगर्भम् / उपतस्थे, संगतकरणे तङ॥ 119 // पुत्रोंने पितरों के लिये श्रद्धासे पवित्र जिस तिलमिश्रित जलको समर्पण किया, वह (तिलमिश्रित होनेसे कृष्णवर्ण युक्त जल) पितरों के निवासस्थान होनेसे चन्द्रमाके पास पहुंच गया और वह (कृष्णतिलयुक्त जल ) ही कलङ्ककी कान्तिसे मिश्रित अमृत है / [ कृष्णवर्णवाले तिल ही कलङ्क हैं तथा उनसे संयुक्त जल ही अमृत है, उनसे मिन्न न तो कोई कलङ्क मृग और न तो कोई अमृत ही है ] // 119 //
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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