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________________ 1306 नैषधमहाकाव्यम्। अनुमानेन ज्ञाता इत्यर्थः, मया इति शेषः। इति एवम् , अर्द्धा 'अतो मां जहीहि' इत्यवशिष्टांशस्य अवचनात् असम्पूर्णरूपा, वाणी वाक्यं यस्याः सा तादृशी / शैषिकः कप / पाण्योः नयनपिधायकनलहस्तयोः, मोचनात् निजपाणिभ्याम् अपनोदनात् हेतोः, ज्ञातं विदितम् , स्पर्शान्तरम् अन्यविधः स्पर्शः, सखीस्पर्शात् विलक्षणः नलस्पर्शः इत्यर्थः / यया सा तादृशी निश्चितप्रियपाणिस्पर्शा, दमयन्तीति शेषः / मानसेविनी अभिमानवती, नलस्य दमयन्त्यनादरपूर्वकत्रेतानुरक्तत्वेन तस्मिन्मान: वती सतीत्यर्थः / मौनं नीरवताम् , भानशे प्राप, न किञ्चिदूचे कोपादिति भावः॥१३॥ हे सखि ! ( नेत्र बन्द करनेवाली तुमको मैंने ) अनुमानसे जान लिया, ऐसी आधी बात कही हुई, तथा ( अपने हाथोंसे नलके ) हार्थों को छुड़ानेसे ( पतिके ) स्पर्शको पहचानती हुई ( मेरे साथ आलिङ्गनादि छोड़कर 'त्रेता' में अनुरक्त होनेसे नल के प्रति ) मान करने वाली दमयन्ती चुप हो गयी। [ 'तमको मैंने अनुमानसे जान लिया' इतनी आधी बात हो दमयन्तीने सखीको सम्बोधितकर कहा था 'अतः अब मुझे छोड़ दो' यह आधी बात कहना बाकी ही था, इतने में अपने हाथसे नलके हाथको छुड़ाते सनय उनके स्पर्शको पहचान लेने से 'अरे मैं तो 'सखीने आँख बन्द किया है' ऐसा समझती थी, किन्तु 'ये सखी नहीं, अपितु प्रियतम नल हैं। ऐसा जानकर मानयुक्त होनेसे उक्त बातको पूरा नहीं कहा, किन्तु आधी बात कह कर ही चुप लग गयी] // 13 // 'साऽवाचि सुतनुस्तेन कोपस्ते नायमौचिती / त्वां प्रापं यत्प्रसादेन प्रिये ! तन्नाद्रिये तपः // 14 // सेति / तेन नलेन, सुतनुः अनवद्याङ्गी, सा भैमी, अवाचि उक्ता / वचेः कर्मणि लुङ् / तदेवाह-हे प्रिये ! ते तव, अयं क्रियमाणः, कोपः रोषः, नौचिती न न्यायः, अनुचित इत्यर्थः / तथा हि, यस्य तपसः, प्रसादेन अनुग्रहेण, त्वां भवतीम् , प्रापं प्राप्तवान् अस्मि, अहमिति शेषः। आप्नोतेलुङ 'तस्थस्थमिपां तान्तन्तामः' इति मिपोऽमादेशः। तत् महोपकारि, तपः अग्निहोत्रादिकर्म, न आद्रिये ? न सत्करोमि ? इति काकुः, अपि तु अवश्यमेव तस्य समादरं करोमि, तत्प्रसादादेव यतः त्वां लब्धवानस्मि इति निष्कर्षः // 14 // सुन्दर शरीरवाली दमयन्तीसे नलने कहा कि-'तुम्हें यह कोप करना उचित नहीं है, ( क्योंकि ) जिसके प्रसादसे ( मैंने ) तुम्हें पाया है, उस तपका मैं आदर नहीं करूं ? अर्थात् तुम्हें प्राप्त कराने में कारण होनेसे उस तप ( अग्निहोत्रादि नित्यानुष्ठान ) का मुझे आदर करना ही चाहिये, अत एव तुम्हें मुझपर क्रोध करना उचित नहीं हैं // 14 // निशि दास्यं गतोऽपि त्वां स्नात्वा यन्नाभ्यवीवदम् / तं प्रवृत्ताऽसि मन्तुं चेन्मन्तुं तद्वद वन्द्यसे / / 15 // 1. 'साऽवादि' इति 'प्रकाश' सम्मतः पाठः / 2. 'प्राप' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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