________________ 879 चतुर्दशः सर्गः। अस्य छन्दोविषयत्वादिति / एवं स स्वर्गे भवाः स्वर्गीयाः, 'वा नामधेयस्य-' इति वृद्धत्वाच्छप्रत्ययः / तासां मृगीदृशां स्त्रीणामपि, वशोकाराय वशीकरणाय, मारायते मारः कन्दर्प इव आचरति, न केवलं विदग्धवाक स्त्रीवशीकरणसमर्थोऽपि चेत्यर्थः / यद्वा, भूयसा बहुतरोक्तेन, किम् ? यः यस्मै स्पृहयति यत् कामयते, 'स्पृहेरीप्सितः' यतोऽयं चिन्तामणिरिति भावः // 86 // इस ( पूर्वोक्त ) 'चिन्तामणि' नामक मेरे मन्त्रको (अथवा-'चिन्तामणि' (चिन्तित फल देनेवाले रत्नविशेष ) रूप मेरे मन्त्रको; अथवा-मेरे मन्त्ररूप चिन्तामणिको ) जिस पुण्यात्मा ( या-पुरश्चरणादि सत्कर्मकर्ता) ने हृदयमें (चित्तमें, पक्षा०-छातीपर) किया; वह सम्पूर्ण शरीरमें व्याप्त ( शृङ्गारादि नव ) रसरूपी अमृतसे आर्द्र (सुमधुर, या सरस ) वचन ( काव्यादि ) से बृहस्पति अर्थात् बृहस्पतितुल्य (या-बृहस्पति ही) होता है, वह स्वर्गीय मृगलोचनाओंको वशीभूत करनेके लिए कामदेवतुल्य आचरण करता है अर्थात् उसे देखकर उर्वशी-मेनकादि स्वर्गोय देवाङ्गनाएँ कामाधीन हो जाती हैं / अधिक ( अन्यान्य मन्त्रों, या बहुत कहने ) से क्या प्रयोजन है ? जो जिसको चाहता है, वह उसे ही प्राप्त करता है। [ अत एव हे नल ! तुम इसी 'चिन्तामणि' नामक मेरे पूर्वोक्त (14 / 85) मन्त्रको हृदयमें धारण करो] // 86 // पुष्पैरभ्यर्च्य गन्धादिभिरपि सुभगैश्चारु हंसेन मां चे. निर्यान्ती मन्त्रमूर्ति जपति मयि मतिं न्यस्य मय्येव भक्तः / सम्प्राप्त वत्सरान्ते शिरसि करमसौ यस्य कस्यापि धत्ते सोऽपि श्लोकानकाण्डे रचयति रुचिरान कौतुकं दृश्यमस्य // 87 // पुष्पैरिति / किञ्च, मयि भक्तः भक्तियुक्तः सन् , मय्येव मतिं न्यस्य मनो निधाय, हंसेन, वाहनभूतेन, चारु सम्यक , निर्यान्ती सञ्चरन्ती, मन्त्रमूर्ति मन्त्ररूपां, मां सुभगैः मनोज्ञैः, पुष्पैः तथा गन्धादिभिरपि चन्दनादिसुगन्धिद्रव्यः, आदिशब्दात् धूपाद्यपचारैश्च, अभ्यर्य जपति चेत् तर्हि वत्सरान्ते सम्प्राप्ते सति असौ जपिता, यस्य कस्य अनक्षरस्यापि, शिरसि करं धत्ते निधत्ते, सः अनक्षरः अपि, अकाण्डे अकस्मात् रुचिरान् श्लोकान् रचयति, अस्य मन्त्रस्य, एतत् कौतुकम् अद्भुतं, दृश्यं द्रष्टव्यम् // सुन्दर हंसगामिनी एवं मन्त्ररूपिणी अर्थात् षटकोणाकृति यन्त्रमध्यवर्तिनी, या मन्त्र. मध्यगत शरीर वाली मुझको सुन्दर फूलों तथा गन्धादि (चन्दन-धूपादि सुगन्धियों ) से पूजा करके मुझमें बुद्धि लगाकर अर्थात् चित्तको एकत्यकर तथा मेरा ही भक्त होकर अर्थात् सब प्रकार मेरा ही सेवन करता हुआ ( साधक मेरे मन्त्रको) जपता है, तब एक वर्षके बाद वह जपकर्ता जिस किसी ( मूक, मूर्ख आदि) के भी मस्तक पर हाथ रखता है, वह (मूक, मूर्ख आदि जन ) भी अकस्मात (रसरीतिगुणालकारादि ) मनोहर श्लोकोंकी रचना