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________________ 80 नैषधमहाकाव्यम् / करने लगता है; अत एव ( इस मन्त्रको जपकर तुम ) इसके कौतूहलको देखो / / 87 / / गुणानामास्थानी नृपतिलक ! नारीतिविदितां रसस्फीतामन्तस्तव च तव वृत्ते च कवितुः। . भवित्री वैदर्भीमधिकमधिकण्ठं रचयितुं परीरम्भकोडाचरणशरणामन्वहमहम् / / 88 // . अथ श्लोकद्वयेन नलं प्रत्युपयोगविशेषमाह, गुणानामित्यादि / नृपतिलक ! हे नृपश्रेष्ठ ! गुणानां रूपलावण्यादीनां, श्लेषप्रसादादीनाञ्च, आस्थानीम् आधारभूतां, नारी उत्तमस्त्री, इति विदितां विश्रुताम, अन्यत्र-रीतिषु गौडीपाञ्चाल्यादिषु, विदिता प्रसिद्धा, सा न भवतीति अरीतिविदिता, नञसमासः / साऽपि न भवतीति तां नारीतिविदितां रीतिषु विदितामित्यर्थः, नअर्थस्य न-शब्दस्य सुप्सुपेति समासः / अन्तः मनसि, श्लोकमध्ये च, रसोतां रसेन नलविषयकानुरागेण, स्फीतां परिपूर्णाम्, अन्यत्र-शृङ्गारादिरसाढ्या, 'शृङ्गारादौ विषे वोर्ये गुणे रागे द्रवे रसः' इत्य. मरः / वैदर्भी दमयन्ती, वैदर्भरीतिञ्च, यथासङ्ख्यं तव च नलस्य च, तव वृत्ते च चरित्रविषये च, कवितुः वर्णयितुः, श्रीहर्षादिकवेरित्यर्थः, 'कवृ वर्णने' इति धातोस्तृच / अधिकण्ठं कण्ठे, विभक्त्यर्थेऽव्ययीभावः / परीरम्मक्रीडाचरणम् आलिङ्गनविनोदाचरणमेव, शरणं प्राणत्राणं यस्याः तां तदेकजीविताम्, अन्वहम, अनुदिनम् / याथाथ्यऽव्ययीभावः, 'नपुंसकादन्यतरस्याम्' इति समासान्तष्टच , 'अहष्टखोरेव' इति टिलोपः। अधिकम् अत्यर्थ, रचयितुं कर्त्तम, अहं भवित्री भविष्यामीत्यर्थः।।८।। हे राजश्रेष्ठ ( नल) ! सौन्दर्यादि गुणोंके आधारभूत, 'नारी' ऐसी प्रसिद्ध अर्थात् 'लोकमें यही एक श्रेष्ठ नारी है। ऐसा प्रसिद्ध, हृदय में रस ( त्वद्विषयक अनुराग) से परिपूर्ण दमयन्तीको (पक्षा०-इलेषादि तथा प्रासादादि गुणों के आधारभूत, अरीति ( वैदर्भी, गौडी, पाञ्चाली रीतिसे भिन्न ) नहीं अर्थात् उक्त रीतित्रयसे सुप्रसिद्ध, ( इलोकपद्य ) के मध्यमें शृङ्गारादि नव रसोंसे परिपूर्ण 'वैदर्भी' ( स्वल्पसमासवाली, या असमासवाली तीन रीतियोंमें-से प्रसिद्ध रीति-विशेष) को तुम्हारे तथा तुम्हारा चरितकी कविता करने वाले ( श्रीहर्षादि कवियों ) के कण्ठमें आलिङ्गन (चुम्बनादि ) क्रीडाको करना ही जिसका जीवन है ऐसी ( अथवा-आलिङ्गन (चुम्बनादि ) क्रीडाके लिये, तुम्हारा चरण ही है शरण जिसका ऐसी अर्थात् आलिङ्गनादि क्रीडार्थ तुम्हारे चरणों की सेवाको शरण मानने. वाली, पक्षा०-परीरम्भ ( श्लेषालङ्कार ) तथा क्रीडा (वक्रोक्ति-विलास ) का यथावत् ज्ञान ही जिसका शरण (आधार ) है ऐसी कविता) करनेके लिए अर्थात् करानेवाली प्रतिदिन होऊंगी। [ उक्त सौन्दर्यादि गुणविशिष्ट दमयन्ती तुम्हारे कण्ठमें आलिङ्गनादि क्रीडा जिस प्रकार करे वैसा मैं प्रतिदिन करनेमें प्रयत्नशील रहूंगी, पक्षा०-उक्त श्लेषादि गुणयुक्त वैदर्भी रीतिवाली तुम्हारे चरित्रकी कविताको करनेवाले कविके कण्ठमें लेष
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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