________________ 876 नैषधमहाकाव्यम्। .. सरस्वती देवी भी मन्दहासपूर्वक हर्षसे भूपति (नल ) के प्रति बोली-तुम्हारी परम प्रिया (दमयन्ती ) के अत्यधिक हर्षका सम्पादन करती हुई मुझसे तुम्हें कुछ ( वरदान ) ग्रहण करना उचित नहीं है ? अर्थात तुम्हारी परमप्रिया दमयन्तीकी अतिशय हर्षकार्य करने. वाली मुझसे भी तुम्हें कुछ वरदान ग्रहण करना ही चाहिए ( अथवा-जब मैंने तुम्हें ही तुम्हारी परमप्रिया दमयन्तीके लिए देकर उसका परमानन्द सम्पादन किया तो अब मुझसे कोई वस्तु तुमको नहीं लेनी चाहिये ) / [ ऐसा परिहास दमयन्तीकी सखी बनी हुई सरस्वती ने किया, दुलहिन दमयन्तीकी सखी सरस्वती देवीका दुलहे नलसे उक्त परिहास करना उचित ही है / परन्तु अग्रिम इलोकार्थकी सङ्गतिके लिये प्रथम अर्थ ही सुसङ्गत है ] अर्थो विनैवार्थनयोपसीदन्नल्पोऽपि धीरैरवधीरणीयः। मान्येन मन्ये विधिना वितीर्णः स प्रीतिदायो बहु मन्तुमर्हः / / 4 / / अर्थ इति / किञ्च, अर्थनया याच्यादैन्येन, विनैव उपसीदन् उपनमन् , अल्पः अपि अर्थः हितार्थः, धीरैः प्रेक्षावद्भिः, अवधीरणीयः उपेक्ष्यः, न, परन्तु स्वीकरणीय एव; कथं नावधीरणीयः ? इत्याह-अत्र यस्मात् इति पदमूहनीयम् ; यस्मात् मान्येन पूज्येन, विधिना ब्रह्मणा एव, वितीर्णः दत्तः, दीयते इति दायः कर्मणि घञ् प्रत्ययः, 'आतो युक् चिणकृतोः' इति युगागमः, प्रीत्या दायः 'कत्त करणे कृता-' इति समासः, प्रीतिदानरूपः, सः अर्थः, बहु अधिकः, इति मन्तुम् अवगन्तुम् , अहः इत्यहं मन्ये // 84 // विद्वानों को विना याचना किये ही मिलनेवाले छोटे-से भी फल (हितकर कार्य ) की उपेक्षा नहीं करनी चाहिये, ( किन्तु उसे स्वीकार ही करना चाहिये, क्योंकि माननीय दैव ( या ब्रह्मा ) के दिये हुए प्रेमपूर्वक दानको 'बहुत है' ऐसा मानना चाहिये / [ विना याचना किये ही प्रेमपूर्वक दी गयी जो छोटी भी वस्तु भाग्यसे प्राप्त होती हो, उसका छोटी होनेसे त्याग न कर उसे बहुत उत्तम मानकर स्वीकार करना चाहिये ] // 84 // अवामा वामाई सकलमुभयाकार घटनाद् द्विधाभूतं रूपं भगवदभिधेयं भवति यत् / / तदन्तर्मन्त्रं मे स्मर हरमयं सेन्दुममलं निराकारं शश्वजप नरपते ! सिध्यतु स ते // 5 // अथ वरस्वरूपमेव पञ्चभिः प्रपञ्चेनाह, अवामेत्यादि / नरपते ! हे नरेन्द्र ! अर्द्ध एकभागे, अवामा अस्त्री, पुमानित्यर्थः, पुनः अर्द्ध अर्द्धभागान्तरे, वामा स्त्री, अत एव द्विधाभूतं स्त्रीपुंसात्मकम् , उभयाकारघटनात् उभयोः आकारयोः मेलनात् , सकलं सम्पूर्ण भगवदभिधेयं भगवच्छब्दवाच्यं यत् रूपं भवति विद्यते, सेन्दुम् इन्दुकला. समेतम् , अमलं निर्मलं, निराकारं परमार्थतः निरंशं, मन्त्रं मन्त्रात्मक, तद्वत् गोप्यं वा हरमयम् ईश्वरात्मकं, मे मम, तत् रूपं, स्वरूपमित्यर्थः, अन्तः अन्तःकरणे, स्मर