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________________ 1144 नैषधमहाकाव्यम् / डोलने में भी असमर्थ ) कलि के लिए केवल कलिद्रुम ( कलि-सम्बन्धी वृक्ष ) हो नहीं हुआ, किन्तु उत्तम आश्रय देनेसे ( कल्पद्रुम ) मो हुआ / [ अन्य भो कोई किसो निराश्रित के लिए आश्रय देकर वह उसके लिए कल्पद्रुम कहा जाता है ] // 210 / / ददौ पदेन धर्मस्य 'स्थातुमे केन यत् कलिः / एकः सोऽपि तदा तस्य पदं मन्येऽमिलत् ततः / / 211 / / ददाविति / यत् यस्मात् कलिः युगाधमः, धर्मस्य पुण्यस्य, एकेन पदेन चतुर्थां. शेन, स्थातुं वर्तितुम , ददौ दत्तवान् , सृष्टिप्रवाहस्य अनादितया प्राक्तन कलियुगे कलिः धर्मस्य एकेन पदेन स्थानमर्पितवानित्यर्थः / ततः तस्मात् , तदा नल राज्य. काले परवर्तिसत्ययुगे, एकः केवलः, सोऽपि विभीतकतोव, तस्य कले, पदं स्थानम्, अमिलत् जातम् , एकपरस्थानदानात् एकवृक्षरूरस्थान प्राप्तमित्यर्थः / इति मन्ये विवेचयामि, अहमिति शेषः / दानानुरूपं फलमश्नुते इति भावः // 211 // जिस कलिने ( समय-प्रवाहके अनादि होनेसे पूर्व कल्पमें ) धर्मके लए एक पादसे ठहरनेका स्थान दिया था, उसमें वह (बहेड़ा) मो कलि के ठहरने के लिर एक पाद ही मिला, ऐसा मैं मानता हूँ। [ 'जो व्यक्ति पूर्व जन्म में जितना दान करता है, जन्मान्तर में उसे उतना ही वह द्रव्य मिलता है। इस विधान के अनुसार कलि को मा एक पादसे ठहरने के लिए ही वह बहेड़े का पेड़ प्राप्त हुआ, क्योंकि कलि ने पूर्व जन्म में धर्म के लिए एक पादसे ही ठहरनेका स्थान दिया था। 'सत्ययुगमें चारों पादोंसे, त्रेतामें तोन पादोंसे, द्वापरमें दो पादोंसे और कलिमें एक पादसे धर्मका अवस्थान रहता है' ऐसे शास्त्र सिद्वान्तके आधार पर उक्त उत्प्रेक्षा की गयी है ] // 211 // ___ उद्भिद्विरचितावासः कपोतादिव तत्र सः | राज्ञः साग्नेर्द्विजात तस्मात् सन्त्रासं प्राप दीक्षिनात || 212 / / उद्धिदिति / उद्भिदि बिभीतकवृते, विरचितावासः कल्पितस्थितिः, अन्यत्रउद्भिदा तृगगुल्मादिना, विरचितावासः निर्मितगृहः, सः कलिः, कश्चित् पुरुषश्व, साग्नेः आहिताग्नेः, सजाठराग्नेश्व, द्विजात् द्विजातेः क्षत्रियात् , अण्डजाच, दीक्षितात् अग्निहोत्रे कृतदीक्षात् , अन्यत्र-ईक्षितात् गृहोपरि दृष्टात् , तस्मात् राज्ञः नलात् , कपोतात अङ्गारभक्षिपारावतविशेषादिव, सन्त्रासम् अभिशापभयम् , गृहे अग्निसं. योगभयञ्च, प्राप लेभे, लिट् / अन्यत्र-प्रापत् अलम्भिष्ट; इति, लुङ् / अत्र साग्नेर्दी तितादिति विशेषगद्वयेन नलस्य कलिं प्रति तपःप्रभावजन्याभिशापप्रदानसामर्थ्य राज्ञो द्विजादिति विशेषणद्वयेन च तस्य क्षत्रियराजोचितदण्डदानसामथ्य सूचितम्॥ बहेड़ेके पेड़पर निवासस्थानको बनाया हुआ कलि अग्निहोत्र करनेवाले, यज्ञमें दीक्षित, 1. 'स्थानमेकेन' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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