________________ सप्तदशः सर्गः। 1107 साथ मुझे उसी प्रकार विरोध करना ही पड़ेगा, जिस प्रकार होनबल कुमुदके साथ प्रचण्ड तेजस्वी सूर्य विरोध करते हैं // 138 // द्वापरः साधुकारेण तद्विकारमदीदिपत् / / प्रणीय श्रवणे पाणिमवोचन्नमुचेः रिपुः / / 136 / / द्वापर इति / द्वापरः कलेः सहचारितृतीययुगाधिदेवः, साधुकारेण 'साधु' इति शब्दोचारणेन, तस्य कले, विकारं प्रलापम् , अदोदिपत् अवावृधत् / दीप्यतेगौं चडि 'भ्राजभासभाषदीपजोव-' इत्यादिना विकल्पादुपधाहस्वः, 'दी? लघोः' इत्यभ्यासदीर्घः / अथ नमुचेः रिपुः इन्द्रः, श्रवणे कर्णे, पाणिं करम् , प्रणीय निधाय, पाणिभ्यां कौँ पिधाय इत्यर्थः / अवोचत् अचीकथत् // 39 // ___ द्वापर ( तृतीय युगके अधिष्ठातृ देव ) ने साधुकारसे ( तुम्हारा विचार बहुत ठीक है, ऐसा कहनेसे ) उस कलिके ( नल के साथ विरोधरूप) विकारको प्रदीप्त कर दिया / फिर इन्द्र ( उस वचनको श्रवण करनेमें भी दोष मानते हुएके समान ) कानपर हाथ रखकर अर्थात् कानोंको हाथोंसे बन्दकर बोले // 139 / / यहत्तेऽल्पमनल्पाय तदत्ते ह्रियमात्मने / / 140 / / विस्मेयेति / हे कले ! विस्मेयमतिः विस्मयनीयबुद्धिः, स्वमिति शेषः / अस्मासु वैलक्ष्यं स लज्जत्वम्, ईक्षसे पश्यसि, साधु 'जगतो होस्तु युष्माभिः' इति यदुक्तं तत् साधु उक्तम् इत्यर्थः / कुतः ? अनल्पाय महार्हाय, अल्पं स्तोकम् यत् दत्ते अपयति, तत् अल्पदत्तम् , आत्मने अल्पदात्रे जनाय, हियं लज्जाम् , दत्ते जनयतीत्यर्थः / अधिकदानार्हाय अल्पदानस्य दातुरेव ह्रीकरत्वात् महते नलाय कीादिकमल्पमेव प्रदत्तमित्यस्माकं लज्जा युक्तैवेति भावः // 140 // विस्मयनीय बुद्धि तुम जो हमलोगोंमें लज्जाको देखते हो वह ठोक ही है ( दूसरेके हृद्गताभिप्रायको जानने के कारण तुम्हारी बुद्धि हमलोगोंको विस्मित करती है)। बडेके लिये जो थोड़ा ( या तुच्छ पदार्थको ) दिया जाता है, वह ( तुच्छ पदार्थका देना ही ) अपने ( दाताके ) लिए लज्जाको देता है अर्थात बड़ेके लिए तुच्छ पदार्थ देनेसे दाताको लज्जित होना पड़ता है। [नल बहुत महान् हैं, अस एव उनके लिए हमलोगोंको कोई महान् पदार्थ देना चाहिये था, किन्तु हमलोग वैसा नहीं करके उनके लिए दमयन्तीको, कुछ कीर्तिको तथा वरोंको ही दे सके है; अत एव हमलोग इस तुच्छदानके करनेसे वास्तविकमै लज्जित हो रहे हैं और हमलोगोंका लज्जित होना तुमने पहचान लिया, इसलिए तुम्हारी पराशयवेदिनी बुद्धिपर हमलोगोंको विस्मय हो रहा है / इस प्रकार कहकर इन्द्रने नल के महत्त्वको अत्यधिक बढ़ा दिया / अथवा-अनल्प (जिसकी अपेक्षा छोटा नहीं है ऐसा अर्थात् अतिशय "तुच्छ ) तुम्हारे लिए जो हमने 'कस्कोऽयं धर्ममर्माणि कृन्तति ( 17.83)' इत्यादि थोड़ा-सा