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________________ 1108 नैषधमहाकाव्यम्। उपालम्भ दिया, अत एव हमें लज्जा हो रही है, क्योंकि अधिक उपालम्भ देनेयोग्य तुम्हारे लिए थोड़ा उपालम्भ देनेसे हम लज्जित हैं तथा इसे तुमने पहचान लिया, अतः पराशयवेदिनी तुम्हारी बुद्धि विस्मय उत्पन्न करती है। अथवा-अतिहीन के लिए जो कुछ थोड़ा दिया जाता है, वह देना दाताके लिए लज्जाको देता है, प्रकृतमें सम्भाषणके भी अयोग्य तुमको हमने जो उपालम्भ दिया, वास्तविकमें वैसा करना भी अनुचित होनेसे हम लज्जित हो रहे है और तुमने इसको जान लिया, अतः तुम्हारी उक्त बुद्धिपर हमें विस्मय हो रहा है ] // 140 // फलसीमां चतुर्वर्ग यच्छतांशाऽपि यच्छति | नलस्यास्मदुपघ्ना सा भक्तिभूताऽवकेशिनी / / 141 / / ततः किमत आह-फलेति / यच्छतांशः यस्याः भक्तेः, शततमांशः अपि / सङ्घयाशब्दस्य वृत्तिविषये पूरणार्थत्वं त्रिभागवत् / फलसीमा फलावधिम् , चरमः फलरूपमिति यावत् / चतुर्वर्ग धर्मार्थकाममोक्षरूपपुरुषार्थचतुष्टयम् , यच्छति ददाति नलाय दातुमर्हतीत्यर्थः / 'पाघ्रा-' इत्यादिना यच्छादेशः / वयम् उपनः आश्रयः यस्याः सा अस्मदुपध्ना अस्मद्विषया, 'उपघ्न आश्रये' इति निपातः / नलस्य नष. घस्य, सा प्रकर्षतां गता, भक्तिः सेवादिशेषः इत्यर्थः / अव शून्यम् ईष्ट इत्यवके. शिनी निष्फला / 'सुप्यजाती णिनिस्ताच्छील्ये' इति गिनिः 'ऋन्नेभ्यो डीप' इति ङीप् / 'बन्ध्योऽफलोऽवकेशी च' इत्यमरः / भूता सञ्जाता, लस्यास्मद्विश्यकभक्तः शततमांशेनापि सन्तुष्टंरस्माभिः चतुर्वोऽपि नलाच दातुं शक्यते, किन्तु चतुर्वर्गादधिकस्य फलस्याभावात् प्रकृष्टायास्तद्भतेरुचित फलस्य दातुमसामर्थात् तद्भक्तिः निष्फलैव सञ्जातेत्यर्थः / तद्भक्तेः चतुर्वर्गदानरूपम अपि फल न पर्याप्तं किं पुनर्भमीदानमिति ऋणिनाम अस्माकं युक्ता एव हीः इति भावः // 141 // जिस भक्तिका शतांश भी फलकी चरम सीमा चतुर्वर्ग ( अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष ) को (नलके लिए ) देने के लिए समर्थ हैं, हमलोगों का गयी वह नलकी भक्ति निष्फल हो गयी। [ अपने में की गयी नलभक्तिके शतांशसे भी अति सन्तुष्ट होकर हमलोग उनके लिए सर्वोत्तम फल चतुर्वर्ग दे सकते थे, किन्त हतनी अधिक की गयी नलकृत भक्तिमे भो हमलोगोंने उसके लिए केवल दमयन्तीको कुछ कीर्ति (पूर्णश्लोकत्व) तथा वरों को (14 7091) ही दिया; अत एव नलकी भक्ति निष्फल हो गयी / अथवा-जिस भक्ति के शतांशसे भी वशीभूत हमलोगोंसे प्राप्त-सामर्थ्य नल दूमरोंके लिए चरम फल चतुर्वर्गको भा देना ( दे सकता ] है, वह भक्ति ( तदधिक फल नहीं दे सकनेसे ) निष्फल हो गयी। अथवा पाठा०-वह नल भी चतुर्वर्गको देते हुए हमलोगों के लिए किये जाते हुए कमों के चरम फलको ब्रह्मार्पणरूपसे देता है, उसीके फिर प्रत्यर्पण करने ( लौटाने ) से नल तथा हमलोगों 1. 'यच्छता सोऽपि' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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