________________ 1094 नैषधमहाकाव्यम् / स्वस्ति-' इत्यादिना चतुर्थी। 'स्वस्त्याशीः चेमपुण्यादौ' इत्यमरः / शिखिन् ! हे अग्ने ! खिन्नता खेदः, न अस्ति, कञ्चित् ? इति शेषः / सखे काल! हे सुहृत् यम ! सुखेन प्रीस्या, असि वर्तसे, किम् ? इति शेषः / पाशहस्त ! हे वरुण ! तव भवतः, मुदः मोदाः, सन्ति किम् ? इति शेषः / सर्वत्र काकुरनुसन्धे या // 112 // ____ हे वास्तोष्पते (गृहपति इन्द्र)! तुम्हारा कल्याण तो है ? हे शिखिन् (ज्वालावाले अग्नि ) ! तुम्हें खिन्नता तो नहीं है ? हे मित्र काल ( यमरान ) ! सुखले हो न ? हे पाशहस्त (हाथमें पाश' नामक आयुध लिये हुए वरुण ) ! आनन्द तो हैं ? / [ उक्त चारों सम्बुद्धि शब्दोंसे क्रमशः इन्द्र का केवल गृहपति मात्र होना, अग्निका ज्वाला ( अकिञ्चित्कर ज्वाला) वाला होना, यमका कृष्णवर्ण होनेसे कुरितत रूपवाला होना और वरुणका केवल हाथ में अकिञ्चित्कर पाश आयुध लिये हुए होना उस कलि ने सूचित किया है, तथा इन्द्र के लिए 'स्वस्ति' प्रश्न करनेसे इन्द्रका स्वामिख या कलिका ब्राह्मणत्व द्योतित होता है तथा अपने समान कृष्ण वगंवाले यमराज के लिए 'सखि' (मित्र ) बन्दका प्रयोग किया है, उत्तर्मो के साथ कुशल-प्रश्न होता है, उनके साथ समता होती है यहां पर कलिको श्रेष्ठता घोतित होती है, इस प्रकार कलिने इन्द्रादिके विषय में अवज्ञाको प्रकट किया ] / / 112 / / स्वयंवरमहे भैमी-वरणाय त्वरामहे / तदस्माननुमन्यध्वमध्वने तत्र धाविने || 113 / / स्वयमिति / हे देवाः ! स्वयंवरः एव आत्मना पतिवरणमेव, महः उत्सवः तस्मिन् , स्वयंवराय महः तस्मिन् इति वा / भैमीवरणाय दमयन्ती भार्यान्वेन वरीतुं, वरामहे स्वरां कुर्महे, शीघ्र याम इत्यर्थः / तत् तस्मात् , अस्मान् तत्र धाविने स्वयंवरगामिने, अध्वने अवगमनाय इत्यर्थः / अनुमन्यध्वम् अनुजानीध्वम् // 113 // हम स्वयंवरोत्सव में दमयन्तीको वरण करने के लिए शोवता कर रहे हैं अर्थत् शीत्र जा रहे हैं, इस कारण वहां जानेवाले मार्ग के लिए तुम लोग हमें अनुमति दो। [ शीत्रताके कारणसे हो हम तुम लोगों के साथ विशेष सम्मान करना नहीं चाहते, इस कारग तुम लोग इस समयमें मुझे वहां जाने की अनुमति दो ] / 113 / / तेऽवज्ञाय तमस्यच्चैरहवार मकारणम् / ऊचिरेऽतिचिरेणैन स्मित्वा दृष्टमुखा मिथः / / 114 / / ते इति / ते देवाः, अस्य कले, तं पूर्वोक्तम् , उच्चैः उत्कटम् , अकारणम् अहेतु. कम् , अहङ्कारं गर्वम् , अवज्ञाय अविगगरप. आ एवं अतिचिरेण अतिविलम्बेन, पापिष्ठोऽयं कथमस्माभिः सम्भाष्य इति बुदया इति भावः। मियो दृष्टमुखाः परस्परमुखावलोकिनः सन्तः, स्मिस्वा मूढोऽयं स्वयंवरवात्तों करोतीति ईषत् हसित्वा, एनं कलिम् , चिरे ऊचुः // 114 // वे ( इन्द्रादि देव ) कलिके निष्कारण महान् अहङ्कारकी अवज्ञाकर (अथवा-निष्कारण अहङ्कारकी अधिक अवज्ञाकर ) परस्पर में एक दूसरेके मुखको देखकर थोड़ा हँसकर ('इस