________________ सप्तदशः सर्गः। 6 गया (इन्द्रको नमस्कार किया)। अर्थान्तरमें-जिस प्रकार गुरु वसिष्ठ मुनिके शापसे: चण्डाल बना हुआ राजा त्रिशङ्क उनके विषयमें अवचा युक्त हो विश्वामित्रसे यश कराकर सशरीर स्वर्गको जाता हुआ इन्द्रके तेजसे ध्वस्त होकर नतमस्तक हो गया (नीचेकी ओर मस्तककर स्वर्गसे पृथ्वीमें गिरने लगा) उसी प्रकार कलि भी इन्द्र के विषयमें पहले अधिक अवज्ञा युक्त होकर भी बादमें इन्द्र के तेजसे आक्रान्त हुएके समान नतमस्तक हो गया अर्थात इन्द्रको मस्तक झुकाकर प्रणाम किया ] // 110 // पौराणिक कथा-पहले इक्ष्वाकुवंशीय राजा त्रिशङ्क पर क्रुद्ध उसके गुरु वसिष्ठ मुनिने शाप देकर उसे चण्डाल बना दिया, तदनन्तर सशरीर स्वर्ग जानेका इच्छुक उसने विश्वामित्रको यज्ञमें आचार्य बनाकर यज्ञ किया और विश्वामित्रके मन्त्र बलसे सशरीर स्वर्ग जाने लगा तो इन्द्रने स्वर्गमें रहनेका अधिकारी नहीं होनेके कारण उसे भूमिपर गिरनेका आदेश दिया और वह उलटा मुखकर (नतमस्तक होकर ) भूमिपर गिरने लगा। यह कथा महाभारतमें आयी है। विमुखान् द्रष्टुमप्येनं जनङ्गममिव द्विजान् | एष मत्तः सहेलं तानुपेत्य समभाषत / / 111 / / विमुखानिति / जनात् गच्छति इति जनङ्गमः चण्डालः तम् / 'गमश्व' इति संज्ञायां खच्प्रत्यय इति क्षीरस्वामी। 'चण्डालप्लवमातङ्गदिवाकीर्तिजनङ्गमाः' इत्यमरः / द्रष्टुम् ईक्षितुम् अपि, विमुखान् परावत्तिताननान् , द्विजान् विप्रादीन् इव, एनं कलिं, द्रष्टुमपि किमुत सम्भाषितुं स्पष्टुं वेति भावः। विमुखान् तान् इन्द्रादीन् , मत्तः मदान्धः, एषः कालः, सहेलं सावज्ञम् / 'हेलाऽवज्ञाविलासयोः' इति विश्वः / उपेत्य समागत्य, समभाषत सम्भाषितवान् // 111 // ___चण्डालको देखने के लिए भी ( सम्माषण तथा स्पर्श करने की बात तो बड़ी दूर है) विमुख द्विजों के समान इस ( कलि ) को देखनेके लिए भी विमुख उन (इन्द्रादि देवों ) के पास जाकर मतवाला वह कलि अवज्ञापूर्वक बोलने लगा / ( अथवा पाठा०-देखनेके लिए: भी विमुख द्विजोंके पास ( मदपानसे) मतवाले चण्डालके समान देखने के लिए भी विमुख उन इन्द्रादि देवोंके पास जाकर उन्मत्त कलि अवज्ञापूर्वक बोलने लगा)॥ 111 / / स्वस्ति वास्तोष्पते ! तुभ्यं ? शिखिन्नस्ति न खिन्नता ? / सखे काल ! सुखेनासि? पाशहस्त ! मुदस्तव ? / / 112 / / स्वस्तीति / वास्तोष्पते ! वास्तोः गृहक्षेत्रस्य, पतिः अधिष्ठाता तत्सम्बुद्धौ, हे भुवस्पते ! इन्द्र !, 'वास्तोष्पतिगृहमेधाच्छच' इत्यस्मादेव निपातनादलुकि षत्वम् / 'इन्द्रो मरुत्वान्मघवा विडोजाः पाकशासनः। वास्तोष्पतिः सुरपतिर्बलारातिः शची. पतिः // ' इत्यमरः / तुभ्यं स्वस्ति क्षेमम् , अस्ति कञ्चित् ? इति शेषः। 'नमः 1. 'जनगम इव' इति पाठान्तरम् //