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________________ एकविंशः सर्गः। 1411 छमेति / हे विष्णो ? छमना कपटेन, वेदोद्धारव्याजेनेत्यर्थः / मत्स्यः मीनः, वपुः शरीरं यस्य तथोक्तस्य, तव ते, पुच्छस्य लांगूलस्य, आस्फालनात् ताडनात् हेतोः, अब्धेः सागरात् , उद्धृतम् उर्ध्वम् उरिक्षप्तम् , जलं वारि, कर्तृ / गगनाङ्गणेन आकाशात्मकचत्वरेण, सङ्गात् संयोगात् हेतोः, श्वैत्यं श्वेतत्वम् , एत्य प्राप्य, विबुधालयगङ्गा स्वर्णदी, भूत्वा इति शेषः / आविरस्तीव प्रादुर्भवतीव / नीलवर्णा अपि सामुद्रा ह्यापो गगनालोकसंस्पर्शादेव धवला दृश्यन्ते इति भावः // 53 // ( अवतारोंकी स्तुति करते हुए नल सर्वप्रथम मत्स्यावतारकी स्तुति करते हैं-शङ्खासुरके द्वारा अपहृत वेदके उद्धारके लिए ) कपटसे मत्स्यका शरीर धारण किये तुम्हारे पूंछके आस्फालनसे ऊपर उछला हुआ समुद्रजल आकाशाङ्गणके संसर्गसे श्वेतिमाको प्राप्तकर मानो स्वर्गीय नदी ( आकाशगङ्गा) रूपमें प्रकट हुआ है। [ यद्यपि नलका शिवभक्त होना प्रसिद्ध है, तथापि शिवको विष्णुका भक्त होनेसे विष्णुकी स्तुति द्वारा ही नल शिवको प्रसन्न करना चाहते हैं और 'श्रीहर्ष' कविके परमवैष्णव होनेसे भी विष्णु भगवान्की स्तुतिसे ही आरम्भ करने में कोई अनुपपत्ति नहीं है, इसी कारण आगे 'श्रेयसा हरिहरौ परिपूज्य' ( 214105) के द्वारा शिव- विष्णु दोनों के ही पूजन करनेका वर्णन कविने किया है ] // 53 // भूरिसृष्टिधृतभूवलयानां पृष्ठसीमनिकिणैरिव चक्रः। चुम्बिताऽवतु जयत् क्षितिरक्षाकर्मठस्य कमठस्तव मूत्तिः / / 54 / / भूरीति / हे भगवन् ! पृष्ठसीमनि पृष्ठप्रदेशे, भूरिषु प्रतिकल्पं नूतनसृष्टिकरणात् बह्वीषु, सृष्टिषु सृजनकार्येषु, तानां पृष्ठदेशे एव उदूढानाम् , भूवलयानां पृथ्वी. मण्डलानाम् , किणः पुनः पुनः वहनेन घर्षणजनितचिह्नविशेषरिव, चक्रैः चक्राकार. चिह्नराजिभिः, चुम्बिता स्थाने स्थाने स्पृष्टा, क्षितेः पृथिव्याः, रक्षायां पालने जलनिमज्जनात् रक्षणविषये इत्यर्थः / कर्मठस्य कुशलस्य / 'कर्मणि घटोऽठच'। तवभवत सम्बन्धिनी, कमठः कूर्मरूपिणी, मूर्तिः तनुः, जगत् भुवनम् , अवतु रक्षतु // 54 // ( अब कच्छपावतारकी स्तुति करते हैं-तुम्हारी ) पीठपर अनेक सृष्टियों में धारण किये गये पृथ्वी-मण्डलों के घठे ( किण ) के समान चक्रचिह्नोंसे स्पृष्ट (छूई गया ) पृथ्वीकी रक्षा करनेमें तत्पर आपका कच्छप-शरीर संसारकी रक्षा करे। [आपके कच्छप-शरीरके पृष्ठ. भागपर जो चक्राकार चिह्न दृष्टिगोचर होते हैं, वे मानो अनेक सृष्टियोंमें पृथ्वीकी रक्षा करनेके लिए उसको धारण करने के घट्टे पड़े हुए हैं, ऐसा आपका कच्छप-शरीर संसारकी रक्षा करे / पीठपर प्रत्येक सृष्टिमें पृथ्वीको धारणकर आप उसकी रक्षा करते हैं। सात पातालोंके नीचे फणाओंपर पृथ्वीको. शेषनाग धारण करते हैं, उसके भी नीचे ब्रह्माण्डके नीचे कटाइके मारको ब्रह्माण्ड (जला-) वरणरूपजलमें कच्छपरूप विष्णु धारण करते हैं॥ 54 //
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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