________________ प८६ / नैषधमहाकाव्यम् / तदेव, तदा अध्यगामि अधिगतम् ; स्वांशोद्भूतजनवियोगः स्वावयवच्छेदवत् भवतीति भावः / किञ्च, निजम् आत्मीयं, विभ्रमधाम विहारभवनं, यान्ती चाग्देवता सरस्वती अपि उत्का उन्मनाः, उत्सुका सतीत्यर्थः, 'उत्क उन्मनाः' इति निपातः। निवृत्य निवृत्य पुनः पुनः परावृत्य, भैमी पश्यति स्म, 'सन्धत्ते भृशमरति सुहृद्वियोगः' इति भावः // 96 // अपने अंशभूत इस राजा (नल ) को छोड़ते. ( छोड़कर स्वर्ग जाते ) हुए देवों (इन्द्रादि चारों देवों) ने उस समय अपने अंश ( हाथ-पैर आदि अवयव ) के काटने के समान ही दुःखको प्राप्त किया तथा अपने विलासभवनको जाती हुई सरस्वती देवी भी उत्कण्ठित हो घूम-घूमकर अर्थात् पीछे की ओर मुड़-मुड़कर दमयन्तीको देखती थी। ( अथवा-जाती हुई सरस्वती देवी भी उत्कण्ठित हो घूम-घूमकर अपने विलासके स्थानभूत दमयन्तीको देखती थी।) [राजाका लोकपालांश होनेसे नल भी इन्द्रादि लोकपालोंके अंशोत्पन्न थे, अतः नलको छोड़कर स्वर्ग जाते समय इन्द्रादिको अपने अवयव ( हाथ-पैर आदि अङ्ग) को काटकर अलग करनेके समान कष्ट हुआ तथा दमयन्तीको छोड़कर जाती हुई सरस्वती देवीको भी अधिक कष्ट हुआ, इसी कारण जाती हुई वह लौटलौटकर उसे ( दमयन्ती को ) देखती थी / अन्य भी किसी व्यक्तिको अपने अंश (अवयव ) के अलग होनेसे दुःख होता ही है। पुरुष इन्द्रादिका पुरुष नलमें तथा स्त्री सरस्वतीका स्त्रीनलमें 'स्वगणे परमा प्रीतिः' नीतिके अनुसार अनुराग होना उचित ही है। अथ च-दमयन्ती सरस्वती देवी का क्रोडास्थान (पक्षा०-अत्यन्त विदुषी ) थी अत एव सरस्वतीका अपने क्रीडास्थान दमयन्तीको छोड़ते उत्कण्ठित होना तथा जाते समय लौटलौटकर देखना उचित ही है ] // 96 // सानन्दं तनुजाविवाहनमहे भीमः स भूमीपतिवैदर्भीनिषधाधिपौ नृपजनानिष्टोक्तिसम्मृष्टये / स्वानि स्वानि धराधिपाश्च शिविराण्युद्दिश्य यान्तः क्रमा देको द्वौ बहवश्वकार सृजतः स्मातेनिरे मङ्गलम् / / 67 / / सानन्दमिति / तनुजायाः दुहितुः दमयन्त्याः, विवाहनं परिणयनम् विपूर्वात् वहतेय॑न्ताद्भावे ल्युट् तदेव महः उत्सवः तस्मिन् , भूमोपतिः भूपतिः, स भीमः तथा वैदर्भीनिषधाधिपौ दमयन्तीनलौ, तथा स्वानि स्वानि शिविराणि उद्दिश्य यान्तः धराधिपाश्च एकः द्वौ बहवः एते त्रितयेऽपि, नृपाणां दमयन्त्यवृतभूपानां, ये जनाः परिजनाः, तेषां या अनिष्टोक्तिः स्वस्वप्रभोरवमाननाजनितश्रुतिकटुवाक्यानि, तासां सम्मृष्टये तदोषपरिहाराय अश्रवणाय वा, सानन्दं यथा तथा मङ्गलं नगरसंस्कारेष्टदेवतानुस्मरणतूर्यघोषादिमङ्गलाचरणं, क्रमात् एकः भीमाचकार,