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________________ चतुर्दशः सर्गः। 885 नहीं मिलनेसे मरनेको तैयार वे राजालोग, दमयन्तीसे वरदान प्राप्त स्वेच्छानुसार रूफ. ग्रहण करनेकी विद्याको अच्छी तरह सीख लेनेसे उस दमयन्तीके समान ही बनी हुई उन सखियोंको पाकर मरनेका विचार छोड़ दिये // दमयन्ती यदि उन सखियोंको नहीं दिलवाती तो वे राजा लोग अवश्य प्राणत्याग कर देते ] // 94 // अहह सह मधोना श्रीप्रतिष्ठासमाने निलयमभि नलेऽथ स्वम्प्रतिष्टासमाने। अपतदमरभत्त मूर्तिबद्धव कीर्तिर्गलदलिमधुबाष्पा पुष्पवृष्टिनभस्तः // 9 // अहहेति / अथेन्द्रप्रस्थानानन्तरं, मघोना इन्द्रेण सह, श्रीप्रतिष्ठया ऐश्वर्यगौरवेण, समाने सदृशे, नले स्वं निलयम् अभि शिविरं प्रति, 'अभिरभागे' इति. लक्षणार्थे कर्मप्रवचनीयत्वात् तद्योगे द्वितीया प्रतिष्ठासमाने प्रस्थातुम् इच्छति सति, प्रपूर्वात्तिष्ठतेः सन्नन्ताल्लटः शानजादेशः 'समवप्रविभ्यः-' इत्यात्मनेपदत्वात्, 'पूर्ववत् सनः' इत्यात्मनेपदम् गलन् स्रवन् , अलियुक्तं मधु मकरन्दः एव, बाष्पः अश्र यस्याः सा तादृशी साञ्जनबाष्पयुक्ता इत्यर्थः, मूर्तिबद्धा बद्धमूर्तिः, मूतिमती. त्यर्थः, 'वाऽहिताग्न्यादिषु' इति निष्ठायाः परनिपातः। अमरभत्तु इन्द्रस्य, कीर्तिः इक पुष्पवृष्टिः नभस्तः नभसः, पञ्चम्यास्तसिल / अपतत् पतिता, अहह इत्यद्भुते, कीर्तिः स्वामिदुव्र्यसनदुःखात् भ्रश्यतीवेत्युत्प्रेक्षा / पुष्पाणां धवलतया कीतित्वं दमयन्त्या चावृतत्वेन इन्द्रस्य कीर्तिः सुतरां भ्रष्टा, नारीणां बाष्पञ्च सकजलं भवतीति भावः / / __ प्रतिष्ठामें इन्द्र के समान नलके अपने स्थान अर्थात् शिविरमें जानेकी इच्छा करनेपर देवेन्द्रकी मूर्तिमती गिरते हुए भ्रमरयुक्त मकरन्दरूप अश्रुवाली कीर्तिके समान पुष्पवृष्टि आकाशसे गिरी ( हुई ) आश्चर्य है। [ दमयन्तीको पानेसे इन्द्रतुल्य ऐश्वर्यवाले नल अपने शिविरमें जाने लगे तब प्रसन्न देवगणने आकाशसे पुष्पवृष्टिकी उन पुष्पोंके साथ सुगन्धिसे आकृष्ट भ्रमर तथा पुष्पोंके मधु गिर रहे थे, वे उस मूर्तिमती कीर्तिके अञ्जनाविल बाष्पके समान प्रतीत होते थे // इन्द्रको छोड़कर नलका वरण करनेसे रोती हुई देवेन्द्रकीर्तिका स्वर्गसे गिरना और रोनेमें अञ्जनयुक्त होनेसे बाष्पका कृष्णवर्ण होना उचित ही है। यहां भ्रमरको अञ्जन, मकरन्दको आंसू, श्वेत पुष्पोंको मूर्तिमती देवेन्द्र की कीर्ति समझना चाहिये ] // 95 // स्वस्यामरैर्नृपतिमंशममुं त्यजद्भिः रंशाच्छदाकदनमेव तदाऽध्यगामि / उत्का स्म पश्यति निवृत्य निवृत्य यान्ती वाग्देवताऽपि निजविभ्रमधाम भैमीम् / / 66 / / - स्वस्येति / स्वस्य आत्मनः, इन्द्रादेरिस्यर्थः, अंशम् अंशसम्भवम् , 'अष्टाभिश्चः सुरेन्द्राणां मात्राभिनिर्मितो नृपः' इति स्मरणात् ; अमुं नृपतिं नलं, त्यजद्भिः अमरः इन्द्रादिभिः, अंशच्छिदा अवयवच्छेदः, "षिनिदादिभ्योऽङ' तया यत् कदनं दुःखं
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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