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________________ 884 नैषधमहाकाव्यम् / नहीं पानेसे ) प्रतिपक्षी राजालोग ( सौन्दर्यादि) गुणोंसे पूर्ण नलमें अवर्तमान (नहीं रहनेवाले ) दोषको विद्वेष ( दमयन्तीको प्राप्त करनेसे नलके प्रति उत्पन्न वैर ) से भी नहीं कहा तथा ( इन्द्रादि ) ( अथवा-यमराज-१४७७ ) के दिये वरदानसे अत्रोंको प्राप्त किये हुए नलमें युद्धके योग्य कोई वचन नहीं कहा, किन्तु..... "दयालु बना दिया) [ दमयन्ती राजाओंकी स्थितिको देखकर अत्यन्त दयायुक्त हो गयी ] / / 93 // भूभृद्भिर्लम्भिताऽसौ करुणरसनदीमूर्तिमद्देवतात्वं तातेनाभ्यर्थ्य योग्याः सपदि निजसखीर्दापयामास तेभ्यः / वैदास्तेऽप्यलाभात् कृतगमनमनःप्राणवाञ्छां निजध्नुः सख्याः संशिक्ष्य विद्यां सततधृतवयस्यानु काराभिराभिः // 64 // भूभृद्भिरिति / भूभृद्भिः भूपालः, करुणरसनद्याः करुणाख्यरसप्रवाहस्य, मूर्तिमत् शरीरि, देवतात्वम् अधिदेवतात्वं, लम्भिता प्रापिता, स्वस्वदुःखेन दुःखीकृता इत्यर्थः, असौ दमयन्ती, सपदि तत्क्षणमेव, अभ्यर्थ्य सम्प्रार्थ्य, पितरमिति शेषः, यद्वा-तातेन राज्ञा इति शेषः, तातेन पित्रा भीमेन, योग्याः कुलशीलसौन्दर्यादिना राजार्हाः, निजसखीः तेभ्यः भूभृद्भयः, सम्प्रदाने चतुर्थी / दापयामास, ते भूभृतोऽपि, वेदाः अलाभात् हेतोः, कृतं गमनं निष्क्रमणेच्छा इत्यर्थः, यैः तादृशानां मनःप्राणानां वाञ्छां निष्क्रमणेच्छारूपकर्माणि, अथवा-कृतं गमने देहपरित्यागे, मनो यस्ताह. शानां प्राणानां वान्छां निष्क्रमणेच्छामित्यर्थः, सख्याः भैम्याः, 'आख्यातोपयोगे' इपि अपादानस्वात् पंचमी विद्यां कामरूपधारणविद्याम् इन्द्राद्यक्तां. संशिक्ष्य अभ्यस्य, सततं नित्यं, तः वयस्यानुकारः भैमीसादृश्यं याभिः तादृशीभिः, आभिः सखीभिः साधनैः, निजध्नुः निरोधयामासुः, राजानोऽपि दमयन्त्यलाभेन निष्क्रमणेच्छून् मनःप्राणान् भैमीसखीलाभेन निष्क्रमणात् निवर्तयामासुः, अन्यथा सद्यो नियेरनिति अहो दमयन्त्या दयालुत्वं विवेचकत्वञ्चेति भावः // 94 // ( दमयन्तीके अलामसे दुःखित ) राजाओंसे करुणरसकी नदी (पक्षा०-करुणरस. प्रवाह ) की अधिदेवता बतायी गयी ( उन राजाओं के दुःखको देखकर अतिशय करुणावाली) इस दमयन्तीने ( अपने पितासे ) प्रार्थना करके शीघ्र ही योग्य (रूप शील आदिसे उन राजाओंकी पत्नी बनने के योग्य ) अपनी सखियोंको उन राजाओंके लिए पिता ( राजा भोज ) से दिलवा दिया ( और ) वे ( राजा लोग ) भी दमयन्तीके नहीं मिलनेसे निर्गमन ( मरने ) के लिए तैयार अपने प्राणों की इच्छाको, सखी ( दमयन्ती ) से विद्या ( वरदानसे प्राप्त इच्छानुकूल रूप धारण करने आदिका ज्ञान ) अच्छी तरह सीखकर निरन्तर सखी ( दमयन्ती ) के समानताको प्राप्त की हुई उन सखियोंसे अर्थात् उन सखियों के पानेसे रोका / [ राजाओंके अपार दुःखको समझकर करुणापूर्ण दमयन्तीने अपने पिता राजा भोजसे प्रार्थना करके उन राजाओंके योग्य अपनी सखियोंको दिलवा दिया तथा दमयन्तीके
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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