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________________ चतुर्दशः सर्गः। 883 शब्दः स्यादनुरागजः' इत्यमरः / परिजनानाम् आलपनैः आभाषणैः, विपुलः सन् , तथा स्वर्वासिनां दिव्यजनानां, वृन्देन हतानां ताडितानां, दुन्दुभीनां नादेन सान्द्रः निरन्तरः सन् , निरवच्छिन्नभावेनेत्यर्थः, क्षणात् उदलसत् उस्थितः॥ 92 // ऐसा (14 / 70-91 ) वरदान देकर उन (इन्द्रादि चारों देव तथा सरस्वती देवी) के आकाशमें जाने के लिए तत्पर होनेपर ( अपने-अपने शिविर आदिमें जानेके लिए ) उठते हुए राजाओंके परिजनों के भाषण ( जय, जीव इत्यादि राजस्तुतिवचनों ) से देवगों के द्वारा बजायी गयी दुन्दुभियोंके शब्दोंसे गम्भीर क्षणमात्रमें महान् ( बड़े जोरोंका) शब्द ( कोलाहल ) हुआ। [ वरदान देकर इन्द्रादि देव तथा सरस्वती देवी स्वर्गको जानेके लिए उद्यत हुए, अपने-अपने शिविरोंको जानेके लिए राजा लोग उठने लगे तो बन्दी उनके यशोगान करने लगे तथा दमयन्ती और नलके परस्पर संयोगसे सन्तुष्ट देवगण स्वर्गमें दुन्दुभियां बजाने लगे, इन सबका बड़ा कोलाहल क्षणमात्रमें होने लगा ] // 92 // न दोषं विद्वेषादपि निरवकाशं गुणमये वरेण प्राप्तास्ते न समरसमारम्भसदृशम् / जगुः पुण्यश्लोकं प्रति नृपतयः किन्तु विदधुः स्वनिश्वासैभमीहृदयमुदयन्निर्भरदयम् // 13 // नेति / प्राप्ताः स्वयंवरागताः, ते नृपतयः गुणमये गुणैकनिलये, नले इति शेषः, निरवकाशमवर्तमानं, दोषं विद्वेषात् अपि दमयन्तीलाभजनित द्वेषे सत्यपीत्यर्थः, न जगुः नोचुः, न उद्घाटयामासुरित्यर्थः, 'गै शब्दे' इति धातोलिट् / तादृशगुणसम्पत्तिः अदोषता चास्येति भावः / किम् , वरेण शचीदत्तेन हेतुना, पुण्यश्लोकं नलं प्रति, समरसमारम्भस्य युद्धोद्योगस्य, सदृशम् अनुकूलञ्च किञ्चित् , न, जगुरिति क्रियानुषङ्गः 'सान्निध्ययोगात् किल तत्र शच्याः स्वयंवरक्षोभकृतामभावः' (रघुवंशे 73) इति भावः; किन्तु स्वनिश्वासैः दुःखोत्थैः स्वेषां निश्वासैः, भैमीहृदयं दमयन्तीचेतः, उदयन्ती जनयन्ती, निर्भरा अतिमात्रा, दया यस्य तत् तथाभूतं, तदुःखदुःखितं, विदधुः चक्रः, परदुःखासहिष्णुर्दमयन्ती स्वप्रत्याख्यानदुःखितान् राज्ञो दृष्ट्वा तद्दुः. खप्रशमनेच्छुरासीदित्यर्थः // 93 / / (स्वयंवर में ) आये हुए वे राजालोग सौन्दर्यादि बहुगुणयुक्त ( नलमें ) नहीं रहनेवाले दोषोंको ( दमयन्तीको अप्राप्तिरूपी ) वैरसे भी नहीं कहा और ( उस स्वयंवरमें प्रच्छन्नरूपसे उपस्थित इन्द्राणीके ) वरदानसे युद्धारम्भके समान अर्थात् योग्य भी कोई वचन नहीं कहा; किन्तु ( दमयन्तीके नहीं पानेसे उत्पन्न अपने ) निश्वासोंसे दमयन्तीके हृदय अथवादमयन्तीके हृदय (भूत नल ) को अत्यन्त दयालु बना दिया। (पा०-दमयन्तीके 1. 'प्राप्तास्ने' इति पाठान्तरम् / 2. 'पुण्यश्लोके प्रतिनृपतयः' इति पाठान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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