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________________ 116 नैषधमहाकाव्यम् / ( लोगोंने ) लक्षित ( तर्क) किया। [ जिस प्रकार परमोत्कृष्ट राजसम्पत्तिकी रक्षा बहुत धनुर्धारी धनुषसे करते हैं, उसी प्रकार कान्तिसाम्यसे नलमित्र कामदेव दमयन्तीकी रक्षा कर रहा है, अथवा-कामदेवके परमोत्कृष्ट सम्पत्तिरूप दमयन्तीकी उसके धनुषधारी रक्षा कर रहे हैं, ऐसा लोगोंने समझा ] // 53 // . विशेषतीर्थैरिव जेहनन्दना गुणैरिवाजानिकरागभूमिका / जगाम भाग्यैरिव नीतिरुज्ज्वलैविभूषणैस्तत्सुषमा महाघताम् / / 4 / / - विशेषेति / विशेषतीथैः प्रयागादिष यमुनासरस्वतीप्रमुखैः, जहनन्दना जाह्नवी इव, नन्द्यादित्वाल्ल्यु-प्रत्यये टाप् / गुणैः विद्याविनयादिभिः, अजनात् जनभिन्नात् उत्पन्नः आजानिकः सहजः, शैषिकष्ठञ्-प्रत्ययः / तादृशस्य रागस्य प्रेम्णः, भूमिः एव भूमिका इव आस्पदमिव, विनयादिभिः गुणः सहजस्नेहास्पदपुत्रादिरिव इति यावत् भाग्यैः अनुकूलदेवैः नीतिः इव, उज्ज्वलैः विभषणैः तस्या भेन्याः. सुषमा परमा शोभा, कान्तिरित्यर्थः / महार्घतां महामूल्यताम्, अत्यन्तोत्कृष्टतामित्यर्थः / जगाम तीर्थान्तरसम्मेलनेन जाह्नव्याः पावनत्वोत्कर्ष इव विनयगुणः पुत्रादौ स्नेहोत्कर्ष इव तथा देवानुकूल्येन नीतेः फलप्राप्तिः इव तस्याः सुषमायास्तु लोकोत्तरचमत्कारित्वमिति भावः // 54 // ... विशिष्ट ( 'प्रयाग' आदि ) तीर्थोंसे गङ्गाके समान, विनयादि गुणों ( या-विनयादि गुणसम्पन्न पुत्रादिकों ) से सहज स्नेहके उत्पत्तिस्थानके समान तथा भाग्यसे नीतिके समान निर्मल ( चमकीले ) विशिष्ट भूषणों से उस ( दमयन्ती ) की परमोत्कृष्ट शोभाने अत्यन्त श्रेष्ठताको पा लिया। [ अथवा-'उज्ज्वल' पदको 'विशिष्ट तीर्थ' गुण तथा भाग्यका भी विशेषण मानकर 'उत्तम विशिष्ट तीर्थोसे' इत्यादि अर्थयोजना करनी चाहिये ) / [जिस प्रकार स्वयं पवित्र गङ्गाका माहात्म्य प्रयागादि श्रेष्ठ तीर्थोके सम्बन्धसे निष्कपट पुत्रादि स्वजनों में होनेवाला सहजस्नेह उनके निष्कपट विनयादि गुणोंसे तथा स्वतः फलदायिनी नीति अनुकूल भाग्योंसे अधिक प्रशस्त हो जाती है; उसी प्रकार दमयन्तीकी सहज उत्कृष्ट. शोभा विशिष्ट भूषणों के धारण करनेसे और भी अधिक बढ़ गयी ] // 54 // ; नलात् स्ववैश्वस्त्यमनातुमानता नृपस्त्रियो भीममहोत्सवागताः / तदङ्घ्रिलाक्षामदधन्त मङ्गलं शिरःसु सिन्दूरमिव प्रियायुषे // 55 / / , - नलादिति / नलात् नलसकाशात् , स्वस्य वैश्वस्त्य वैधव्यम् / 'विश्वस्ताविधवे समे' इत्यमरः। अनाप्तुम् अप्राप्तुम, आनताः प्रणताः, अन्यथा नलः स्वभर्तृन् वरा. यमाणान् हनिष्यतीति भयात् भैमी प्रणताः इति भावः / भोमस्य महोत्सवे भमीविवाहे इति यावत् आगताः नृपस्त्रियः अन्यराजपत्न्यः, राजकान्ताः इति यावत् / . 1. 'जगुनन्दनी' इति पाठान्तरम् / ....... .
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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