________________ पञ्चदशः सर्गः। . 6.15 ब्रह्मवच्चेति भावः / निशासु समाधिभिः तन्मुखध्यानैः, मुकुलभावलक्षणैः उपलक्षितं सत् , हिमेषु शिशिरत ष, निर्वाप्य निर्वाणं विनाशं प्राप्य, तदास्यस्य भैमीमुखस्य, आलोकेन दर्शनेन सह वर्तते इति सालोकं तस्य भावः सालोक्यम् आलोकनीयत्वं रभ्यत्वम् इति यावत्, तदाननसालोक्यं तदाननसमानालोकत्वंसालोक्यरूपमुक्तिञ्च, इतं प्राप्तं सत्, इणः कर्तरि कः। व्यलोक्यत किम् ? दृष्टं किम् ? इत्युत्प्रेक्षा। निर्वाणकाले या देवतां ध्यायन्ति तत्सालोक्यं लभन्ते इत्यागमः / भैमीमुखस्य दर्पणस्थप्रतिबिम्बानाञ्च परस्परसान्निध्यात् दर्पणस्थप्रतिबिम्बानि किं शिशिरत षनष्टानि तन्मु. खसदृशानि तत्समीपस्थानि पद्मानि ? इति लोकैरुत्प्रेक्षितमिति भावः // 52 // दो सखियों के द्वारा दिखलाये गये दो दर्पणोंमें दमयन्तीका मुख ( बिम्बरूप मुख ) एक ( पक्षा०–मुख्य ) है तथा दूसरे ( प्रतिबिम्बरूप ) बहुत कमल हैं, जिन्हें . लोग हिम (शिशिर ऋतु, पक्षा०-केदारादि तीर्थके बर्फ) में नष्ट होकर (पक्षा०-मुक्ति पाकर ) रात्रियों में समाधियों ( मुकुलित होने, पक्षा-परमात्माका दर्शनादिके उपायों) से उस ( दमयन्ती, पक्षा०-परमात्मा ) को सालोक्य ( सौन्दर्य, पक्षा०-सालोक्य मुक्ति) को प्राप्त हुएके समान देखते हैं / [ जिस प्रकार ब्रह्म एक एवं मुख्य होता है, उसे अनेक योगी आदि लोग अपने शरीरको केदारादि शीतप्रधान तीर्थों में नष्टकर समाधिके द्वारा उस मुख्य एक ब्रह्मके साथ सालोक्य मुक्ति पा लेते हैं, उसी प्रकार दमयन्तीका मुख एक तथा मुख्य है, उसकी समानताको शिशिर ऋतु में नष्ट होकर तथा रात्रियोंमें मुकुलित होकर इन दर्पण. प्रतिबिम्बित मुखरूप इन बहुतसे कमलोंने पा लिया है; ऐसा लोग समझते हैं // दमयन्तीका मुख कमलोंसे भा अधिक सुन्दर है ] // 52 // पलाशदामेति मिलच्छिलोमुखैवृता विभूषामणिरश्मिमण्डलैः। अलक्षि लक्षैर्धनुषामसौ तदा रतीशसर्वस्वतयाऽभिरक्षिता / / 53 / / पलाशेति / पलाशदाम इयं किंशुकमाला, इति विचिन्त्येति शेषः / मिलन्तः सङ्गच्छमानाः, शिलीमुखाः अलयः, बाणाश्च येष तैः तादृशैः, इति भ्रान्तिमदलङ्कारः। विभूषामणिरश्मिमण्डलैः आभरणरस्नकान्तिपटलैः, वृता वेष्टिता, असौ भैमी, तदा प्रसाधनानन्तरसमये इत्यर्थः / रतीशस्य कामस्य, सर्वस्वतया सर्वधनत्वेन, धनुषां धनुर्धारिणाम् / कुन्ताः प्रविशन्तीतिवदिति भावः / लक्षः शतसहस्रैः, अभिरक्षिता समन्तात् रक्षितेव, इति अलक्षि उत्प्रेक्षिता। लोकैरिति शेषः। कार्मुकरूपताशर श्मिमण्डलैवेष्टितायास्तस्या धनुर्लक्षः रक्षितत्वमुत्प्रेक्षितमिति व्यञ्जकाप्रयोगात् गम्यो. स्प्रेक्षा / राजधनं शस्त्रभिः अभिरक्ष्यते इति भावः // 53 // इसे ( दमयन्तीको ) पलाश-पुष्पोंकी माला समझकर आते हुए भ्रमरों (पक्षा०धनुषाकृति पलाशपुष्पों में सङ्गत होते हुए बाणों ) वाले विशिष्ट भूषणरूप मणि-किरणरूप धनुषोंसे परिवेष्टित इस ( दमयन्ती) को उस समय ( अलङ्कार धारण करनेपर ) कामदेवके सर्वस्य ( परमोत्कृष्ट सम्पत्ति ) होनेके कारण लाखों धनुर्धारी रक्षा कर रहे हैं, ऐसा