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________________ 914 नैषधमहाकाव्यम् [लोकमें भी दो पदार्थों के तारतम्य ज्ञान के लिए उन्हें समीपमें रखकर परीक्षण किया जाता जितस्तदास्येन कलानिधिर्दधे द्विचन्द्रधीसाक्षिकमायकायताम् / तथापि जिग्ये युगपत् सखीयुगप्रदर्शितादर्शबहूभविष्णुना / / 51 / / जित इति / कलानिधिः चन्द्रः / 'शिल्पे कला विधोरंशे' इत्यभिधानात् / तदा. स्येन भैभीमुखेन, जितः सन् द्वौ चन्द्रौ इति धीरेव कार्यभूता साक्षी प्रमाणं यस्याः सा तत्साक्षिका माया कारणभूता यस्य स तादृशः द्विचन्द्रधीसाक्षिकमायः कायः यस्याः तस्याः भावः तत्ता तां, दधे दधार / एकाकिना तन्मुखस्य दुर्जयत्वादेकोऽपि चन्द्रो मायया द्वावभूत् इत्यर्थः / तन्मुखन्तु स्वयमपि कपटादेव त्रित्वमापद्य पुनस्तं जिगायेत्या ह-तथापि द्विभूतोऽपि, युगपत् समकालं, सखीयुगेन सहचरीद्वयेन, प्रदर्शिताभ्याम् आदर्शाभ्यां दणाभ्यां, तद्तप्रतिबिम्बद्वयवशेन इत्यर्थः / 'दर्पणे मुकुरादर्शी' इत्यमरः / बहूभविष्णुना बहूभवित्रा, प्रतिबिम्बद्वयेन आत्मना च त्रि. स्वमापनेन तन्मुखेनेत्यर्थः 'भुवश्च' इति इष्णुच् प्रत्ययः / जिग्ये जितः / त्रिभिट्ठौं सुजयाविति भावः // 51 // - उस ( दमयन्ती ) के मुखसे जीते गये कलाओंके निधि अनेक कलाओंको धारण करने में चतुर ) अर्थात् चन्द्रमाने ( आँखको अङ्गुलिसे दबाने आदिके कारण ) दो चन्द्रमा बननेकी मायाको धारण किया (कि 'मैं दो होकर दमयन्ती के एक मुखको सरलतया जीत खू' किन्तु ) तथापि उसको एक साथ दो सखियों के द्वारा दिखलाये गये (दो) दर्पणोंमें बहुत ( तीन, अथवा-एक दमयन्तीके हस्तस्थ तथा दो सखियों के हस्तस्थ-इस प्रकार तीन दर्पणोंमें एक दूसरेमें मुखका प्रतिबिम्ब पड़नेसे पांच-छः ) होनेवाले ( दमयन्तीके मुखने ) जीत ही लिया / [ पहले दमयन्तीको एक मुखने एक चन्द्रमाको जीत लिया, अत एवं चन्द्रमाने आंख दबाने आदिसे दो चन्द्रमा बनकर उस मुखको जीतना चाहा, किन्तु दो सखियाँ दो और दर्पण लेकर दमयन्ती को दिखलाने लगीं, इस प्रकार तीनों दर्पणों में प्रतिबिम्बित दमयन्तीके मुखने बहुत रूप धारण कर दो चन्द्रमाको भी जीत ही लिया। लोकमें भी एकसे हारता हुआ व्यक्ति मायासे दो बनकर उसे जीतना चाहता है, किन्तु उसकी मायाको समझकर प्रथम विजेता अनेकरूप धारणकर उसे पराजित ही कर देता है / दमयम्तीका मुख चन्द्रमा से भी अधिक सुन्दर है ] // 51 // किमालियुग्मार्पितदर्पणद्वये तदास्यमेकं बहु चान्यदम्बुजम् ! हिमेषु निर्वाप्य निशासमाधिभिस्तदास्यसालोक्यमितं व्यलोक्यत ? // किमिति / आलियुग्मेन सखीद्वयेन, अर्पिते दर्पणद्वये एकम् एकत्वसङ्ख्या विशिष्टं मुख्यञ्च, तदास्यं बिम्बभूतं भैमीमुखम्, अन्यत् तन्मुखप्रतिबिम्बरूपञ्च, बहु अनेकम्, अम्बुजं पद्यम्, एकार्कप्रतिबिम्बितानेकार्कवत् ब्रह्म चैकम् अनेकाविद्याप्रतिबिम्बित
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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