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________________ पञ्चदशः सर्गः। 913 साधन' जिनका ऐसे विग्रहसे ) नामको सार्थक किया / [ 'अलङ्करण' शब्दमें प्रथम 'अलम्' शब्द 'भूषणार्थक' था, किन्तु अब वह 'व्यर्थार्यक' हो गया। पाठा०-'वे अलङ्करण क्यों पहने गये ?' यह मैं नहीं समझ सका ] // 48 // क्रमाधिकामुत्तरमुत्तरं श्रियं पुपोष यां भूषणचुम्बनैरियम् / पुरः पुरस्तस्थुषि रामणीयके तया बबाधेऽवधिबुद्धिधोरणिः / / 46 / / क्रमेति / इयं दमयन्ती, भूषणचुम्बनैः आभरणसम्बन्धैः, उत्तरम् उत्तरम् उपर्युपरि. परं परमित्यर्थः / 'उपर्युदीच्यश्रेष्ठेष्वप्युत्तरः स्यात्' इत्यमरः / क्रमेण पारम्पर्येण; पूर्वपूर्वभुषणापेनया उत्तरोत्तरभूषणेन इत्यर्थः / अधिकां पूर्वापेक्षयाऽतिरिक्तां, यां श्रियं शोभां, पुपोष, तया श्रिया, पुरः पुर उत्तरोत्तरं, रामणीयके कमनीयत्वे / मनोज्ञादित्वात् वुञ् प्रत्ययः / तस्थुषि स्थितिशीले सति, अवधिबुद्धिधोरणिः रामणीयकस्य इयमेव सीमा इयमेव सीमा इत्याकारिका इयत्ताधीपरम्परा, बबाधे बाधिता। पूर्व पूर्वरामणीयकस्य स्थितिजन्यतदियत्ताबुद्धिपरम्पराया उत्तरोत्तरवर्द्धितशोभया निराकृतौ सत्याम् इयत्तारहिता सा शोभासम्पत्तिरासीदिति भावः / धोरणिशब्दः, पनौ देशीये इति सम्प्रदायः॥४९॥ इस ( दमयन्ती ) ने भूषणों के ग्रहण करनेसे उत्तरोत्तर अधिक जिस शोभाको प्राप्त किया, उससे आगे-आगे रमणीयताके स्थिरतर होनेपर शोभाकी इतनी ही अवधि होती है अर्थात् अधिकसे अधिक इतनी ही शोभा हो सकती है ऐसी विचारधारा बाधित हो गयी / [ दमयन्तीके भूषण-भूषित किसी एक अङ्गको देखकर 'शोभाकी यह अन्तिम अवधि है। ऐसा विचार होता था, किन्तु उस अङ्गकी अपेक्षा दूसरे विभूषित अङ्गको देखकर पहले देखे गये अङ्गसे इस अङ्गमें अधिक शोभाको देखकर पूर्वकृत विचार बदलना पड़ता था, इसी प्रकार उत्तरोत्तर शोभाधिक्यसे विचार बदलते रहना पड़ता था। भूषणों के पहननेसे दमयन्तीके अगोंकी निरवधि शोभा हुई ] // 49 // मणीसनाभौ मुकुरस्य मण्डले बभौ निजास्यप्रतिबिम्बदर्शिनी। . विधोरदूरं स्वमुखं विधाय सा निरूपयन्तीव विशेषमेतयोः / / 50 // ' मणीति / मणीसनाभौ रत्नप्रख्ये, मुकुरस्य मण्डले दर्पणतले, निजास्यप्रतिबिम्ब दर्शिनी सा भैमी, स्वमुखं विधोः चन्द्रस्य, दर्पणरूपचन्द्रस्येत्यर्थः, दर्पणे प्रतिबिम्बितचन्द्रस्येत्यर्थो वा / अदूरं समीपगतं, विधाय सम्पाद्य , एतयोः स्वमुख-चन्द्रयोः, विशेषं तारतम्यं, निरूपयन्ती परीक्षमाणा इव, बभौ परीक्षका हि उभयमेकत्र अवस्थाप्य परीक्षन्ते इति भावः / अत्रोत्प्रेक्षा // 50 // - मणितुल्य दर्पणमें अपने मुख के प्रतिबिम्बको देखती हुई यह ( दमयन्ती ) चन्द्रमा (दर्पणरूप, या-प्रतिबिम्बरूप चन्द्रमा ) के पासमें अपने मुखको रखकर इन दोनों ( चन्द्रमा और अपने मुख ) के तारतम्यको निरूपण करतो हुईके समान शोभित हुई।
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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