SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 390
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ' सप्तदशः सर्गः। 1087 माननेसे ( यज्ञादिके अनुष्ठान करने की ही ) व्यर्थता होगी अर्थात् यदि परलोक वास्तविकमें नहीं होगा तो आस्तिकोंका यज्ञादिका केवल अनुष्ठान करना ही व्यर्थ होगा ( इस वैयर्थ्यके अतिरिक्त आस्तिकोंको अन्य कोई हानि नहीं होगी ) और धर्मानुष्ठानसे उत्पन्न अनर्थ ( परलोकनाशरूप अनिष्ट व्यापार ) तो नहीं होगा। [ परस्पर विरोध होने के कारण नास्तिक सब आस्तिक मतोंको अप्रमाण मानते हैं, किन्तु 'कन्यादान करना, तथा माताके साथ सम्भोग नहीं करना' इस आस्तिकके विधि-निषेधपरक मतोंको वे नास्तिक भी स्वीकार करते हैं / इस कारण उक्त 'कन्यादान तथा मातृसंभोगनिषेधको सत्य अर्थात् परलोक-साधक माननेवाले नास्तिक यदि परस्पर विरोध होनेसे अन्य आस्तिकसिद्धान्तों का त्याग करते हैं तो वे परलोकभ्रष्ट होनेसे नष्ट हो गये / और यदि नास्तिकों के मतके अनुसार वास्तविकमें परलोक नहीं है, यथापि आस्तिकों के द्वारा किये गये यज्ञका अनुष्ठान ही व्यर्थ होगा, इसके अतिरिक्त दूसरी कोई हानि नहीं होगी, धर्मजन्य अनर्थ तो होगा ही नहीं। इसके विपरीत यदि सर्वास्तिकसम्मत परलोक है तो यशानुष्ठानसे अस्तिकोंको स्वर्ग-सुख-प्राप्ति अवश्य होगी, तथा नास्तिक को उस परलोकमें विश्वास नहीं होनेसे यशानुष्ठान करते ही नहीं, अतः वे परलोकके सुखसे अवश्यमेव वञ्चित होंगे। इस कारण यशानुष्ठान करना ही चाहिये / यह कथन भी 'तुष्यदुर्जन' न्यायसे ही है, वास्तविकमें तो परलोकके अस्तित्वमें आस्तिकोंको लेशमात्र भी सन्देह नहीं है ] / / 99 / / कापि सर्वैरवैमत्यात् पातित्यादन्यथा कचित् / स्थातव्यं श्रौत एव स्याद्ध में शेषेऽपि तत्कृते / / 100 // उपसंहरति-क्वापीति / क्वापि कुत्रापि, अहिंसाकन्यादानादिरूपे वैदिकानुष्ठानविषये इति यावत् / अवैमत्यात् सर्वेषामैकमत्यात् , तथा क्वचित् कुत्रापि विषये, अन्यथा वैमत्येऽपि, पातित्यात् वर्णाश्रमाधिकारे विहिताकरणनिषिद्धाचरणजन्यप्रत्यवायभयात् , तथा शेषेऽपि नित्यनैमित्तिकातिरिक्ते ज्योतिष्टोमादावपि, अथवा शेषे वेदविहितातिरिक्त स्मात्तऽपि धर्म, तत्कृते वेदकृते, वेदविहि तत्वाविशेषे इति यावत् / हेतुगर्भविशेषगमेतत् / श्रौते एव धर्मे वैदिकमते, सर्वैः नास्तकैरपि, स्थातव्यं वर्तितव्यं, स्यात् भवेत् , स एव ग्राह्यः इत्यर्थः / 'तयोरेव कृत्यक्तखलाः ' इति भावे कृत्यस्तव्यत्प्रत्ययः / विहितानामहिंसादीनां केषाञ्चित् श्रौतस्मातधर्माणां भवद्भिरपि वर्जनात् तदृष्टान्तेन श्रुतिस्मृतिविहितेषु अन्येषु विधिनिषेधांशेष्वपि श्रौतस्मा विशेषादेव स्थातव्यं स्यात् , तस्कृताः शेषा धर्मा अपि अवश्यमङ्गीकार्या इति भावः // 10 // किसी ( अहिंसा, कन्यादान आदि ) धर्मके विषयमें सबका एकमत होनेसे तथा किसी 1. 'तस्कृतेः' इति पाटान्तरम् /
SR No.032782
Book TitleNaishadh Mahakavyam Uttararddham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHargovinddas Shastri
PublisherChaukhambha Sanskrit Series Office
Publication Year1997
Total Pages922
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy